बुधवार, 31 मार्च 2010

'आप' नहीं 'तू'

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स्नेह से सराबोर
ममता का सागर
त्याग और जीवट की प्रतिमूर्ति
अविरल श्रमरत
मेरी मां की मां
जो मेरे लिए मेरी मां से बढ़कर है।
मैं उसे तब से जानता हूं
जब मैं उसके हाथों में था।
घर कैसे बनता है
घर कैसे चलता है
और घर में भौतिक सम्पदा से भी
इतर कुछ होता है
वह उसकी ज्ञाता है
इतना ज्ञान जितना कि
गृह विज्ञान विभाग की अध्यक्ष
को भी न होगा।
वह अक्षरों को बहुत धीरे-धीरे
सोच-सोच कर पहचानती
और पढ़ती है
परंतु उसके हृदय में
सद्व्यवहार का व्याकरण अंकित है
वह फर्राटे से पढ़ लेती है
सामने वाले का स्वभाव और विचार।
पैरों में श्रम की भंवरी
प्रतिपल कुछ निर्माण सर्जना
और स्नेह का विस्तृत भंवर जाल
मैं ही नहीं पूरा परिवार
उलझा हुआ है उसमें।
खेत से सर पर उठा कर लाती
हरे भुट्टों वाले डंठल
और भर देती है बोरी में
मेरे साथ भेजने को।
खाने पीने की हर फरमाइश को
पूरा करने में तत्पर है वह
उसने मुझे कई बार खिलाया है
गाजर का हलुआ।
थक कर चूर होने के बाद भी
नहीं रुकना उसकी आदत है।
निरन्तर श्रमरत रहने की
उसकी कार्यशीलता को
प्रणाम करते हुए भी
मैं यह सब आज तक उससे नहीं सीख पाया ।
पिछले बीस बरस में
मैने उसके चेहरे पर शिकन नहीं देखी
कहीं कोई शिकायत नहीं
कोई गुस्सा नहीं
वह जब भी रोती है
मैं भी खुद को रोक नहीं पाता।
उसकी अति भावुकता
मुझे कतई पसंद नहीं
दूसरों का हौसला बुलंद करने वाली
खुद रो पड़ती है
छोटी-छोटी घटनाओं पर
उसके आंसूओं की एक-एक बूंद
अन्तर्मन की अभिव्यक्ति है
मैं उसे 'आप' नहीं कहता
वह मेरे लिये 'तू' है
और इसी तू में बसा है
गहनतम अपनापन।
आज भी हर विदा की वेला में
वह मुझसे कहती है
सड़क पार करते सावधानी रखने को
और मां से नहीं झगड़ने को ।
वह मेरी कविताओं की प्रेरणा है
मेरी नानी
दुनिया की सभी नानियों से बढ़कर है
ठसी नानी बहुत कम को
मिलती है
अभी मैं इस वट वृक्ष की
छांव में
ढेरों वर्ष
गुजारना चाहता हूं।
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