शनिवार, 13 मार्च 2010

व्यथा

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बरसों से देख रहा हूं
उस विशाल बरगद को
उसका आकार
शाखाएं और
घनी ठण्डी छांव
ज्येष्ठ माह की चिंगारियों में
अनुभूति देती थी ठण्डक की
उसकी बड़ी-बड़ी शाखाओं में
सैकड़ों घोंसले थे
कोटरों में चहकते थे पक्षी
चूजों के खुले मुंह में दाना डालती चिड़ियाएं
सौंदर्य की अनुभूति समेटे
सतरंगे मोरों के जोड़े
पपीहे का मदमस्त स्वर
मर्म को भेदती
कोयल की उदास गूंज
मानस को सुकून देते थे
पर....
मालूम ही नहीं चला
विषाद की रेखा
कब ऊपर से गुज़र गई
और इतिहास के काले कौओं ने
बरगद पर अधिकार कर लिया
बाज सा झपट्टा मारा
गिद्ध जैसा नोचा
गीदड़ों जैसा धमकाया उसने
और
इसी खींचतानी में बरगद पीला पड़ गया।
कुछ शाखाओं ने विद्रोह किया
और उन कौओं को उड़ाया
मगर जाते-जाते वे
कई शाखाओं को
काट कर
अलग कर गये
जो बाद में धीरे-धीरे
नीम और बबूल में तब्दील हो गयीं।
शांति हुई
बरगद ने फिर
नव कोंपलों को जन्म दिया
मगर वह विषाद-रेखा
बरगद में हमेशा के लिए
समा गयी थी
और उसी के कुत्सित रूप ने
अविश्वास को जन्म दिया।
सब सिमटते चले गये
एक छोटे से घेरे में
और उसी में कैद होकर रह गये।
अविश्वास की मजबूत जड़ों ने
चबूतरे को बिखेर दिया
बरगद के पत्ते झड़ गए
बचे हुए
अपने अस्तित्व के लिए
अभी भी संघर्षरत हैं
पीला मुरझाया बरगद
तूफान और आंधियों के
झोंकों से जूझ रहा है
पक्षियों के कलरव की जगह
कांव-कांव ने
ले ली है।
बरगद की हर शाखा
स्वार्थी सी
अपने अस्तित्व को तलाशती है
तभी तो बरगद को
अपना ही अस्तित्व
खोजना पड़ रहा है।
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