रविवार, 24 मार्च 2013

हमारा तो हर रोज अर्थ आवर


डा कुंजन आचार्य

रती को बचाने के लिए कल एक घंटे के लिए लोगों ने बत्तियां बुझाई। यह उपक्रम धरती का प्रदूषण कम करने, कार्बन का उतसर्जन कम करने और पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए किया जाता है। कुछ वर्षों से लगातार हो रहा है। अर्थ अवार मनाने के लिए सभी ने रुचि दिखाइ्र लेकिन मैंने नहीं दिखाई। अब आप सोचेंगे अजीब आदमी है धरती के भले की चिन्‍ता नहीं है इसे। वाकई मैं भी कुछ ऐसा ही मानता हूं। जिनके घरों में 24 घंटे में से एक घंटे ही बिजली आती हो तो बेचारा वो क्‍या अर्थ आवर मनाएगा। उपवास वे लोग करते है जिनका पेट भरा होता है ताकि उनका हाजमा ठीक रह सके। बेचारा गरीब क्‍या उपवास करेगा। उस का तो हर रोज उपवास ही होता है। आजादी के इतने साल बाद भी हमारे गांवों की स्थिति बिजली और पानी के मामले में नौ दिन चले अढाई कोस की तरह है। मेरे गांव की हालत तो यह है कि जब इच्‍छा हो जाए तो बिजली आ जाए ना हो तो ना आए। अब भला इस तरह की स्थिति में जीने वालों को क्‍या पता कि अर्थ आवर किस चिडिया का नाम है। मैंने चम्‍पकलाल को अर्थआवर के बारे में बताया और कहा कि एक घंटा बिजली बन्‍द रखना है तो उसने कहा कि यह उन विदेशियों के लिए हे जो पर्यावरण के लिए खुद बहुत चिन्तित रहते है। हमारे यहां तो हमारी तरफ की चिन्‍ता सरकार ही कर लेती है और हमारी तरफ की कटौती खुद ही कर लेती है।

वैसे हम लोग ना बहुत संतोषी है। कम में भी खुश रह लेते है। जितना मिलता है उतना खाते है। अब हम कोई नेता और पुलिस अफसर तो हे नहीं कि बंधी बांध कर हफ्ता वसूली करते रहे। हम तो जितना मिल जाता हे उसी को प्रभु का प्रसाद समझ लेते है। जब लाल बहादुर शास्‍त्री प्रधानमन्‍त्री बने तब अन्‍न की कमी को पूरा करने के लिए उन्‍होंने देशवासियों से कहा था कि सब एक दिन का उपवास करें। ऐसा हुआ भी और बहुत प्रभावी भी रहा। अब ना तो वैसे नेता रहे ना वैसे अभियान। जो जनजागरुकता के नाम पर होता है उसमें बजट और खाने खिलाने का खेल ज्‍यादा होता है। हमारे यहां के लोग अर्थ आवर को अर्थ मतलब धरती ना समझ कर अर्थ यानी धन समझेंगे। यानी कि एक घंटे में जितना कमा सको कमा लो, बाद में हो सकता है कमाने का आफर निकल ही जाए।

मंगलवार, 19 मार्च 2013

हम तो सदियों से खुश हैं


डा कुंजन आचार्य

जिन को पता नहीं है उनको बता दूं कि आज दुनिया भर में इंटरनेशनल हैप्‍पीनेस डे यानी खुशी का दिन मनाया जा रहा है। इसको देख कर लगता है कि बहुसंख्‍यक दुखी प्राणियों ने मिल कर एक दिन सुख का तय किया है। तय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए आज तो मैं खुश रहूंगा ही। दुनिया कि कोई ताकत मुझे आज इस खुशी से वंचित नहीं कर सकती। ये अजीब अजीब दिन बनाने वाले फिरंगी भी अजीब लोग है। अब भला कोई एक दिन ही खुश कैसे रह सकता है। हम तो भई हर हाल में खुश रहते है। हमारी खुशी से तो विदेशी भी जलते है। चाहे कोई प्रलय आ जाए। धरती फट जाए। सिलेंडर घट जाए। पेट्रोल लगातार रुलाता रहे। बम ब्‍लास्‍ट डराता रहे फिर भी हम तो भई ना डरते है ना दुखी होते है। हर हाल में खुश रहना सीख लिया है हमने। ऐसी प्राचीन मान्‍यता है कि भारतीय सर्वगुण प्रतिभा सम्‍पन्‍न होते है। पडौसी की लडकी किसी के साथ भाग जाए तो बहुत खुश होते है। किसी दुकान में चोरी हो जाए तो भी पडौसी दुकान वाला बहुत खुश होता है। किसी के जीमण में दाल कम पड जाए तो तब तो लोग खुश होते ही होते है। हम हर विपरीत परिस्थिति में भी खुशी बटोरना जानते है। वैसे तो हम भारतीय पत्नियों से बहुत दुखी रहते है। मतलब पीडित रहते है फिर भी यही जताते है कि हमसे सुखी और कोई नहीं। एक पडौसी ने दूसरे से पूछा कि आप पति पत्‍नी खूब ठहाके लगाते हो। इसकी गूंज मेरे ड्राइंग रुम तक आती है। कैसे खुश रह लेते हो भई। साहब ने जवाब दिया जब वह बर्तन मुझ पर फैंकती है और यदि निशाने पर लग जाता है तो वह ठहाका लगाती है और यदि निशाना चूक जाती है तो मैं ठहाका लगाता हूं। एक खतरनाक जुमला भी हमारे देश में ही चलता है कि वह खुशी को बर्दाश्‍त नहीं कर पाया और खुशी के मारे पागल हो गया। खुशी के मारे आंसू भी हमारे यहीं निकलते है। चम्‍पकलाल बदहवास से पोस्‍ट आफिस पहुंचे और पोस्‍टमास्‍टर से बोले भाई साहब मेरी पत्‍नी खो गई है, कुछ मदद करो। पोस्‍टमास्‍टर बोला- भैया ये पोस्‍ट आफिस है पुलिस स्‍टेशन नहीं। चम्‍पकलाल बोला साहब खुशी के मारे मुझे पता ही नहीं चल रहा कि कहां जाऊं और कहां नहीं। पराए दुख से दुबला होने की फितरत हमारी नहीं है। हम हर हाल में खुश है। हम इसके लिए किसी दिन के मोहताज नहीं। खुश रहने का रासायनिक समीकरण तो हमारे मन के अन्‍दर है। इसे किसी दिन में नहीं कैद कर सकते।

गुरुवार, 14 मार्च 2013

उम्र घटाने बढाने का खेल


डा कुंजन आचार्य

चाय की थडी पर खडे दो दोस्त चाय की चुस्कियों के साथ गपिया रहे थे। एक कह रहा था गांव में स्कूल में मास्टर जी ने जब दाखिला किया तो उम्र एक साल कम दर्ज कर दी थी। अब रिटायर्डमेन्ट में एक साल पीछे रह गया। मेरे साथ पैदा हुए सभी लोग इस बार रिटायर्ड हो गए। पीडा जायज थी। यह उस समय की बात है जब जन्म और मृत्यु प्रमाण नहीं बना करते थे। मास्टरजी ने जो लिख दिया वही तिथि पत्थर की लकीर होती थी। इसी प्रकार आप देखिए कि अधिकांश सरकारी कर्मचारियों की जन्म तिथि एक जनवरी यानी नए साल के दिन आती है। यह नहीं होगी तो एक जुलाई होगी। ऐसा इसलिए कि एक जनवरी को याद रखने में पेशानी पर बल नहीं पडते दूसरे एक जुलाई मास्टरजी के लिए मुफीद तारीख है इसी दिन स्कूल खुलते है। स्कूल में दाखिल के समय मास्टरजी अधिसंख्य बच्चों को कागजी तौर पर नए साल के दिन जन्म दिन मनाने को मजबूर कर देते है। चाय की आखिरी घूंट हलक से उतारते हुए दूसरे दोस्त ने कहा यार मेरा तो दूसरा ही लफडा है मैं बचपन में मोटा तगडा दिखता था तो मास्टर जी ने मेरी आयु दो साल कम लिख दी। दोनों अपने बचपन के मास्टर को याद कर ही रहे थे कि पास में बैठे एक साहब का मोबाइल बजा। उन्होंने बात शुरु की और फोन करने वाले को धन्यवाद कहने लगे। कह रहे थे कि भाई शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद लेकिन ये मेरा वास्ताविक बर्थ डे नहीं है। यह तो सरकारी रिकार्ड का बर्थ डे है। फोन बन्द करते ही चाय वाले चम्पा लाल ने भी बधाई दी तो साहब ने कहा कि भई अपना तो साल में दो बार जन्म दिन आता है। एक तो सरकारी रिकार्ड वाला और दूसरा वास्तव में जब मैं पैदा हुआ वो वाला। वास्तविक वाला रिकार्ड वाले से छह महीने कम है। भई उम्र का मामला ही ऐसा है कोई कम करके बताता है तो कोई बढा कर। कहते है महिलाएं अपनी उम्र छिपाकर रखती है। बताना भी पडे तो कम करके बताती है। एक मनोविज्ञानी ने क्या खूब कहा कि महिलाओं की उम्र 25 पर आकर स्थिर हो जाती है। वह चाहे फिर साठ की ही क्यों ना हो जाए। हमारे उपभोक्तावादी दौर में भी उम्र को ही मात करने की बात दिखाई पडती है। एक विज्ञापन में सफेद होते बालों के कारण एक महिला बच्चे को कहती है आंटी मत कहो ना। वहीं दूसरी ओर एक साबुन बेचती अभिनेत्री टीवी पर विज्ञापन में कहती नजर आती है कि मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता ही नहीं चलता। साहित्य में उम्र के किस्से मशहूर है। शृंगार के कवि नायिका को सोलह साल से ऊपर बताना ही नहीं चाहते। रीतिकालीन कवि भी नायिका को षोडशी यानी सोलह साल की कह कर सम्बोधित करते है। कुल मिलाकर सोलह साल बडा खतरनाक साल है। एक हिन्दी फिल्म‍ की एक पंक्ति बताने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं। सुनिएगा- पंडित जी मेरा हाथ देख कर बात बता दो हाल की, साजन अब तक मिला नहीं मैं हुई हूं सोलह साल की। यानी की कुल मिलाकर हमारे लेखकों और कवियों ने सदियों से नायिका की उम्र सोलह तय कर रखी है। इसके लिए ना तो कोई कानून बना ना कोई अध्यादेश जारी हुआ। अब तक चुप चाय वाले चम्पालाल ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। बोला साहब उम्र को घटाने बढाने की बहस का क्या फायदा। संस्का‍र होगा तो वह साठ साल में भी दिखाई देगा और संस्कारहीन है तो वह पांच साल में भी छिपेगा नहीं। चाय पी रहे अन्य लोग चम्पा लाल की बात पर सहमति से मुंडी हिला रहे थे।

बुधवार, 13 मार्च 2013

फायदा चौदह रुपए का


डा कुंजन आचार्य

अब आप भी सोच रहे होंगे कि अजीब टाइप का आदमी है महज चौदह रुपए के फायदे के पीछे बात का बतंगड बना रहा है लेकिन भई अपन तो संतोषी लाल है। एक रुपए का फायदा हो तो भी जिक्र करना नहीं भूलते। यह फायदा चौदह रुपए का है और यह फायदा दिया है उसने जो हमेशा लाखों के घाटे में रहता है। बात रोडवेज की है। रोडवेज की बस बस में यात्रा करना भी एक शानदार अनुभव होता है। इस अनुभव को अनुभव करने वाले लोग बिरले ही होते है। बसों के हाल कैसे है इसका बेहतर जवाब वही दे सकता हे जो इस शाही सवारी का आनन्दल उठा चुका हो। महंगी यात्रा वाले वाहन बेहतर हालत में कहे जा सकते है। अब कहना तो क्याु है। सब जानते है कि बेहतर की परिभाषा क्याह होती है। अब बात निकली है तो कल की बात बताता हूं। एक रोडवेज बस में सफर का मुहुर्त निकल आया तो टल ना सका। बस इतनी अच्छीे थी कि हार्न के अलावा उसका सब कुछ बज रहा था। वैसे भी हमारे यहां सबके हाल ऐसे ही है जिसको जब बजना होता है तब नहीं बतजा है ओर जिसकों जब नहीं बजना होता है तो वहां बज कर सारा हुलिया बिगाड देता है। ये हमारी फितरत का कसूर है। अपनी फितरत तो कानूनी है। कोई काम कानून के खिलाफ नहीं करना है। नियम से काम करो और आनन्द में रहो लेकिन आप तो जानते ही है कि लोग आपको भ्रष्टय बनाने में कोई कसर नहीं छोडते। हर सम्भ व कोशिश करते है कि कोयले की दलाली में काले हाथों का थोडा रंग दूसरों के गालों पर भी मल दे। अब बात फितरत की हुई तो एक और बात मैं बता ही दूं। हमारे यहां जब भी कभी कोई नियम से चलने का प्रयास या दुससाहस करता है तो उसे रोकने की पूरी कोशिया की जाती है। अब आप सोच रहे होंगे पूरी रामायण में वौरह रुप का जिक्र अभी तक नहीं आया। तो जनाब यात्रा का टिकट लेने के लिए मैंने कंडक्टपर की तरफ सत्तीर रुपए बढाए। उसने मेरा चेहरा देखा और बीस रुपए वापस लौटाते हुए कहा कुल किराया चौंसठ रुपए होता है। मैंने सोचा छुट्टे मांग रहा है तो मैंने चार रुपए के लिए जेब टटोली तब वो मुस्कुाराते हुए बोला रखिए ,रखिए, कोई बात नहीं। यह कह कर वह आगे बढ गया। मुण्‍े भी माजरा समझते देर ना लगी। लाखों का घाआ खाने वाली रोडवेज के मुलाजिम ने मुझे 14 रुपए का फायदा पहुंचा दिया है। मैं भी ठहरा नियमी लाल मैंने कहा भाई साहब मेरा टिकट। तो साहब बोले मैं हूं ना। आगे कुछ होता है तो देख लेंगे। आप तो निश्चकतन्तब होकर बैठिए। मैने भी जयादा कुतर्क करने की जहमत नहीं उठाई। मेरे साथ पांच लो और चढे थे। सभी को चौदह चौदह रुपए का फायदा हुआ। उन सहयात्रियों ने अपने इस ुायदे की सूचना अपनी पत्नियों को दी होगी ओर मैं आपको दे रहा हूं।

मंगलवार, 5 मार्च 2013

दीमक, सांप, बिच्छुओं का दौर

डा कुंजन आचार्य

पिछले कुछ दिनों से हर शहर और चौराहों पर छोटे छोटे चींटीनुमा जीव लाखों की तादात में नारे लगा लगा कर प्रदर्शन कर रहे है। पुलिस ने बताया कि इस जीव का नाम दीमक है जो कस्बेग, गांव, खेडो, खेतों, खलिहानों से निकल निकल कर शहर पहुंच रही है और नारे लगा रही है। राष्ट्रीय दीमक महासंघ के तत्वावधान में दिए गए ज्ञापन में कहा गया है कि दीमक के नाम का गलत सलत इस्तेमाल हो रहा है। सार्वजनिक मंचों से उनका नाम ले ले कर उनकी मानहानि की जा रही है। इधर दीमक महासंघ के प्रदर्शन की ब्रेकिंग न्यूज वेन्डी टीवी पर चलते देख सांप और बिच्छु एकीकृत संघ ने भी ताल ठोक दी है। ये भी अपनी अस्मिता के लिए ईंट से ईंट बजाने की बात कर रहे है। वरिष्ठ जीव परिषद ने इस तरह के वक्तंव्यों की घोर निन्दा करते हुए इसे छोटे और लघु जीवों के सम्मान पर सीधा हमला बताया है। संघ ने अपने एक बयान में कहा कि इस तरह से यदि बार बार हमारा नाम लेकर सार्वजनिक मंचों पर हमे अपमानित किया जाएगा तो वे राष्ट्री्य जीवाधिकार आयोग का दरवाजा खटखटाएंगे।
अक्सर देखने में आया है कि लोग एक दूसरे कि तुलना उनकी आदतों के मुताबिक उस तरह के जीव से करते है मसलन इतना काला जितना कौवा। इतना मोटा जितना गैंडा। इतना चिपकू जितनी जोंक। इतना मूर्ख जितना गधा आदि आदि। ऐसी ही अन्य प्रजातियां भी अपनी प्रतिभा के अनुसार प्रकाश में आती जाती रहती है। हम स्वयं भी भेड चाल वाले है और इसलिए कभी कभी खुद को वही समझने भी लग जाते है। खचाखच भरी बस में स्‍वयं की तुलना इन्हीं प्राणियों से नहीं चाहते हुए भी करने लग जाते है। शायद ऐसी ही किसी सूक्ष्म प्रेरणा के वशीभूत होकर हमारे एक केन्द्रीय मन्त्री ने हवाई जहाज के इकोनोमी क्लास में यात्रा करने वालों को पशु वर्ग की उपाधि से नवाज दिया था। वैसे भी घोषित तौर पर हमारे पूर्वज बन्दर थे। कहा जाता है कि इंसान गुस्से में जानवर बन जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि इंसान को अपने अन्दर छिपे जानवर को कभी बडा नहीं होने देना चाहिए लेकिन ऐसा होते हुए तो नहीं दिखता। छोटे गांव से लेकर राजधानी तक छोटी बच्ची से लेकर दामिनी तक हर कोई जानवरों का शिकार हो रही है। यह घोर मूल्यहीनता को दौर है। यहां हर कोई रंगा सियार बना हुआ है।

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

बजट पर नुक्‍ता चीनी

-डा कुंजन आचार्य-

बजट बडा बलवान। जिसका बन जाए उसकी बना दे। जिसका बिगड जाए उसको धूल चटा दे। देश का बजट तो वाकई बडा होता है। बडे बडे लोग चर्चा करते है। बडे बडे लोग प्रतिक्रियाएं देते है। कुछ तारीफ के पुल बांधते है। कुछ नुक्‍ताचीनी कर के उन पुलों को ध्‍वस्‍त कर देते है। अब अपन की गणित तो बहुत कमजोर है। अर्थशास्‍त्र तो है ही पहले से कमजोर। इस मामले में मैं और अमिताभ बच्‍चन बिलकुल एक जैसे है। उनसे जब बजट पर प्रतिक्रिया मांगी गई तो बहुत खूब कहा। जब घर के बजट का ही अन्‍दाजा नहीं है तो देश के बजट पर क्‍या टिप्‍पणी करेंगे। सही भी कहा। हम भी ऐसे ही है। जिनका अपना बजट हमेशा गडबडाया रहता हो वे भला देश के बजट की क्‍या चिन्‍ता फिक्र करेंगे। चाहे जिसके भाव बढा दो। चाहे जिसके भाव कम कर दो। हम तो मस्‍तमौला है। फकीर है। सांसारिक मोहमाया और बन्‍धनों से क्‍या लेना देना। ना नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी। विपक्ष हमेशा से कोसने का काम करता है। कल भी किया। विपक्ष की एक टिप्‍पणी बडी जोरदार रही कि साहब का बजट लोगों को चौबीस घंटे बाद समझ में आएगा। लो जी चौबीस घंटे तो हो गए। मुझे तो अभी भी समझ में नहीं आया, ना आगे आएगा। मैं तो केवल यह जानता हूं कि जिस दिन मेरी जेब का बजट मेरे मुफीद हो जागगा जब देश का, प्रदेश का, जगत का बजट भी समझ में आ जाएगा। अब मैं नाच्‍यौ बहुत गोपाल। आम आदमी को क्रिया प्रतिक्रिया का समय ही नहीं है वह तो लगातार नाच रहा है। महंगाई के सुरों पर ताल दे रहा है। उसके साथ कदम मिला रहा है। पेट्रोल के दामों के अनुसार स्‍कूटर की टंकी छोटी करने की कवायद कर रहा है। नमक तेल के भावों के अनुसार थाली को छोटा करने की कोशिश कर रहा है। बिजली के बढते दामों से लाचार अपने घर की रोशनी कम कर रहा है। आम आदमी क्‍या क्‍या कम करें भाई। बढाने की तो कोई सीमा होती नहीं है लेकिन कम करने की तो सीमा होती है। बढती महंगाई के बोझ के तले दबा आम आदमी अपने दुखों तकलीफों को कैसे कम करें। अपने आसूंओं को कैसे कम करें। इस पर भी तो कोई प्रतिक्रिया दो भाई।

बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

आपत्तिजनक है अमेरिकी रक्षामन्‍त्री का बयान

-डा कुंजन आचार्य-

चक हेगल वह व्‍यक्ति है जिसे दो दिन पहले अमेरिका का रक्षा मन्‍त्री मनोनीत किया गया है। अमेरिका का रक्षा मन्‍त्री होने का अर्थ है एक थानेदार देश की सबसे ताकतवर सेना का प्रमुख। यह वह व्‍यक्ति है जिसका समझदार होना बेहद जरुरी है। रक्षा मन्‍त्री बनते ही आया उनका बयान उनकी इस समझदारी पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगा गया। साहब कह रहे थे कि भारत द्वारा प्रायोजित आतंकवाद से पाकिस्‍तान परेशान है। बडा हैरत में डालने वाला बयान है। सरकार ने हालांकि इस पर आपत्ति जताई लेकिन यहां यह समझना होगा कि अमेरिका केवल जुबानी आपत्तियों की भाषा कभी नहीं समझता है। इसके लिए हमारे विदेश मन्‍त्रालय को कडी आपत्ति दर्ज करवानी चाहिए। हमारे यहां पिछले कुछ महीनों से तरह तरह के रंगों के आतंकवाद की चर्चा हो रही है। बडे पदों पर बैठे लोग आतंक को परिभाषित कर रहे है। चर्चा छेड कर बाद में खेदनुमा माफी मांगते भी दिख रहे है। यह एक नया ट्रेंड है। राजनीतिक परिदृश्‍य में इसे सही से देखने और समझने की जरुरत है। हर बयान के अपने अलग अलग मायने है। हेगल साहब की फितरत को मैं जरा बता दूं कि वे ना तो डेमोक्रेटिक पार्टी के है ना रिपब्लिकन पार्टी के। भारतीय भाषा में कहें तो वे निर्दलीय है। भारतीय राजनीति में निर्दलीय बडा रोल निभाते है। सरकारें बनाने है। गिराते है। खरीदा और बेचा भी इन्‍हें ही जाता है। निर्दलीय बडी खतरनाक चीज होती हे। वह कभी भी कुछ भी कह सकता है। कर सकता है। वह देश काल की सीमाओं से परे स्‍वयंभु होता है। अब स्‍वयंभु है तो उसे कौन रोक सकता है। बस तो समझ लीजिए हेगल भी उसी प्रजाति के नए मन्‍त्री है। बात मजाक की नहीं है। इन महोदय के बयान को अंतरराष्‍ट्रीय परिप्रेक्ष्‍य में गम्‍भीरता से समझने की जरुरत है। अफगानिस्‍तान में अमेरिकी सेना बरसों से बनी हुई है। इसके लिए पाकिस्‍तान पर निर्भरता उसकी मजबूरी है साथ ही दक्षिण एशिया पर नजर रखने के लिए अमेरिका के लिए पास पाकिस्‍तान सबसे बेहतरीन और सुरक्षित जगह है। अपने सामरिक लक्ष्‍यों के लिए अमेरिका बरसों से पाकिस्‍तान को पाल पोस रहा है। बिना शर्त के करोडों डालर की आर्थिक सहायता करता है। नए रक्षा मन्‍त्री और उनके पहले बयान को इसी प्रकाश में देखना होगा कि अमेरिका के तात्‍कालिक स्‍वार्थ क्‍या है और उनको पोषित करने के लिए वह भारत पर कुछ भी आरोप लगा सकता है। आश्‍चर्य तो यह कि सब कुछ जानते समझते हुए हुए भी ओबामा ने इस बयान पर कोई प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त नहीं कि वैसे ही जैसे बयान आने के बाद हमारी सरकार भी कुछ विशेष नहीं कह पाई। विपक्षी पार्टी ने जरुर तीखी प्रतिक्रिया रखी। कुल मिला कर सरकार हेगल के बयान को हल्‍के में ना लें। इससे अंतरराष्‍ट्रीय मंचों पर भारत की छवि कमजोर हो सकती है। इसके लिए हमे सख्‍ती और मजबूती से अपनी बात रखनी होगी तथा इस बयान पर खुल कर अपनी आपत्ति दर्ज करवानी होगी।