बुधवार, 31 मार्च 2010

घुड़सवार

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चौराहे-दर-चौराहे
गुजरते गुजरते
महसूस होता है कभी
कि अब उग आई है समझ
कि कब कहा और कैसे
मील के पत्थरों से रूबरू होना है?
सोचने और करने तक के
फासले की दूरी
बहुत सोच के बाद भी नहीं मिट पाई
समझ कभी हैरान
कभी परेशान
और कभी खुद पर खीझती
कोसती है सोच को।
सोचती है
सूचियो में बंधे लक्ष्यों को
जरूरत है
तीक्ष्ण ऊर्जा
एवं पैने प्रयासों की
परतु हर भोर के साथ
उत्साह की बिखरती रश्मियां
वह समेट ही नहीं पाता।
बस चलता है
और चलता रहता है।
इस विश्वास के साथ
कि कुछ रश्मियां
करती रहेंगी प्रकाशवान
उसके मार्ग को
कभी बेपरवाह
हर क्षण, हर वजूद से
तो कभी
ढेरों चिंताओं का
और डर के दुष्चक्र में पिसता
कच्ची उम्र का वह घुड़सवार
खुद का बहुत अच्छा
विश्लेषक होने के बावजूद
खुद को कभी नहीं समझ पाया।
लगाम को पकड़ना
और अश्व से खेलने का शौक
कब षड़यंत्रों का हिस्सा बन जाएगा
इन सब से अनभिज्ञ
बिल्कुल बेखबर था वह।
हर तरफ से लापरवाह
घुड़सवार दौड़े जा रहा है
चौराहा-दर-चौराहा।
कहीं गरम, झुलसाती हवाएं
कहीं शीतल बयार
कहीं धुंआ
तो कहीं ठिठुरन ।
सूरज ने भी असहमति जता दी
कि उसके नाम की कोई लकीर
उसके हाथ में बने।
शनि की वक्रदृष्टि
कभी उसके सपनों को
झुलसा देती है
चौराहों पर हजारों चेहरों से
मिलते बिछुड़ते
घुड़सवार कहीं खो जाता है।
वह भूल जाता है
कि उसे कहां जाना है ?
अपरिपक्वता उसकी सच्चाई है
परन्तु औपचारिक गम्भीरता
और उससे जुड़े दायित्वों को ढोता
घुड़सवार कभी महसूस करता है
खुद को हताश
निराश और टूटा हुआ।
वेदना के क्षण
उसके अन्तस को कचोट जाते हैं
पीड़ा की अनुभूति
शौक का व्यवसाय बनना देखती है
और देखती है
कि विकल्पों के लिए छोड़े गये
रिक्त स्थानों में
जम रही है महीन मिट्टी की परतें।
घुड़सवार ठड़ लगाता है
तेज, बहुत तेज
कभी बदहवास सा
कहीं गिर पड़ता है
फिर लड़खड़ा कर
एकदम उठता है
और चलता है।
गुजरता जाता है
चौराहा-दर-चौराहा
पर उसे नहीं पता
कि किधर है उसका गंतव्य ?
कौन सी है मंज़िल?
और उसे कहां जाना है.. ?
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मौन

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हर अवसर पर
बस यही सोच कर चुप रह लेता हूं
कि मेरे शब्द
शायद नहीं हो पाएंगे मुखर।
मैं भी देखता हूं एक स्वप्न
धवल चांदनी
और उसके चपल संवेगों में लिपटी
मदहोश कर देने वाली महक का
परंतु महक और उसका अंतरंग शिल्प
मेरी शाब्दिक अभिव्यक्ति की सीमा में
कभी नहीं बंध पाया।
मैने चाहा
बहुत चाहा
रूबरू हुआ उन सजीले शब्दों से
घंटों अकेले में
पर नियति ने
उन शब्दों को बांध दिया है
मेरे उस अहम के साथ
जो किसी कोने में दबा, छिपा है।
माहौल की गरमी पाते ही
उठ खडा होता है वह
अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ
उसकी विशाल संरचना
जबरन ढंक लेती है
मेरी कल्पना के सतरंग
संवेदनाओं की खुशबू
और मेरी आत्मीय अभिरूचि की जिजीविषा।
मेरे मन के भीतर छिपे
सैंकड़ों मन
अनिच्छा के बावजूद
दब जाते हैं उसके भार तले।
माहौल में ठण्डक पसरने के साथ ही
अहम का वजूद भी
अचानक घट जाता है
वह निढाल हो जाता है
गिर पड़ता है मन के बिल्कुल समीप।
मन कोमलांगी वजूद
कोसता है उसे
करता है मिन्नतें
और मागता है
कुछ स्नेहमयी सौगातें।
चंचल मन में बसी गम्भीर समझ
मेरे एकांत की हैरानी है
चटख चांदनी जब कभी छिटक पड़ती है
मेरे आंगन में
मैं उसे आश्चर्य का स्पर्श दे
निहारता हूं
और बस निहारता हूं।
मेरा स्निग्ध मौन
चांदनी के हर प्रतिरूप को खला है।
हमेशा ही
निढाल अहम के कुछ स्वेदकण
छू जाते हैं मानस को
और यही सोच कर चुप रह लेता हूं
कि नहीं दे पाऊंगा भावनाओं को
शब्दों की औपचारिक मुखरता
बस यही कारण रहा
कि चांद को प्रायः मेरे व
चांदनी के बीच
पसरा हुआ दिखा
एक निष्ठुर मौन...।


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मन के भीतर का मन

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हवा का एक झोंका
मुझे छू कर
हौले से यूं गुनगुना देगा
मुझे पता भी न था।
स्वच्छ नीले और विशाल गगन के
विस्तृत पटल पर
वैसे तो हवाओं को
लहराते, इठलाते और मुस्कुराते हुए
कई-कई बार देखा है।
नदी की प्रवाहमान जलराशि को
छेड़कर दरख्तों से लिपट जाना
फूलों को गुदगुदा कर
अस्ताचल पर क्षितिज में विलीन हो जाना
कभी चंदा के साथ
घंटों खिलखिलाना
और अचानक स्मृति में तब्दील हो
क्षण-क्षण का अवसाद छोड़ जाना
हवाओं की फितरत रही है।
कई मन भावन रंगों से सजी
और भांति-भांति की खुशबूओं में लिपटी
हवाओं की कई प्रतिकृतियों को
फूलों के साथ
घंटों बतियाते देखा है मैंने।
जीवन के हर पहलू से जुड़ी
हवाओं के इन करतबों का
दर्शक भर मैं
इक झौंके के मृदु स्पर्श से
जाने कब गुनगुना दिया
खुद मुझे भी पता न चला
हवा ने रची शब्दों की सृष्टि
शब्द और शब्दों में बंधे प्रतीक
और प्रतीकों में लिपटी कविताएं।
मैं समझ भी नहीं पाया था
कि बादल, सागर व लहर के संवादों का साक्षी
हवा का वह झोंका
जाने कब
मुझसे लिखवा गया एक कविता।
हालांकि बिल्कुल मेरी ही तरह
मेरी कविता भी कुछ नहीं कह पाती
लेकिन फिर भी मैं यह देख अवाक हूं
कि हवा के स्नेहमयी स्पर्श ने
कविता से बंधे शब्दों के
अविच्छिन्न मौन के भीतर
संचरित कर दिया है
एक स्पन्दन।
कविताओं से जुड़ा मन का कोई कोना
हथेलियों से आंखों को बन्द कर
चाहता है हवा की गोद में
सिर छुपाना।
मन के भीतर का कोई एक मन
हवा के भीतर छुपे झोंके को
जी लेना चाहता है।


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सम्बन्ध

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सूने और निस्तेज मन में
एक खूबसूरत आत्मिक सम्बन्ध ने
प्रवाहित की उत्साह की ऊर्जा।
ऊर्जा खुशबू बनी
और छा गयी
अन्तःकरण के समूचे परिवेश पर
ऊर्जा का संचार पा कर
मन ठिठका, रुका
झुक कर खुद को देखा
आंखों को गोलाई में घुमाते
माहौल को टटोला
कंधों को उचकाया
दोनों हाथ जेब में डाले
और फिर चल पड़ा।
ऊर्जा संगीत बनी
और सूने मन में गुंजायित हो उठी
सौम्य संगीत की सहस्त्रों आवृत्तियां।
संगीत ने दिया मानस को मृदु स्पर्श
और हवा में फैल गये
गुनगुनाहट के स्वर।
मन के कानों में भी हुई गुनगुनाहट की छुअन
एक बारगी मन चौंका
फिर मुस्कुरा दिया।
मन ने उड़ान भरी
और चाहा सम्बन्ध का नामकरण करना।
नाम देने से बदल जाएगा नज़रिया
और सोचने का ढंग
यही सोचा और थम गया मन ।
कुछ नहीं बोला / कुछ नहीं कहा
मन के मौन को देख
सम्बन्ध भी रहा चुप / निस्तब्ध।
हालांकि सम्बन्ध
कभी कुछ नहीं कहते
वे सिर्फ मन का कहा सुनते हैं
सैंकड़ों सम्बन्ध बनते हैं प्रतिदिन
और सुनते हैं मन का कहा
तब कथनों के साथ ही
नामकरण भी संस्कारित हो उठता है।
सम्बन्ध ने ताका मन की ओर
खेद मिश्रित मुस्कान बिखेरी
मन की ढीठता के नाम
सम्बन्ध और मन जानते हैं बखूबी
सम्बन्धों के निहितार्थ
और उससे जुड़ी महक को
दोनों के बीच पसरे मौन ने
कर दिया अब बयां
जो बरसों से कहा
और सुना जाता रहा है
मन व सम्बन्ध ने फिर एक दूजे को देखा
और हवा में तैर गयी
दो मृदु मुस्कानें
तब्दील हो गयी
एक नई ऊर्जा में
समा गयी आशा बन कर
रगों में, धमनियों में
शिराओं में,
मन अब
एक बार फिर चल पड़ा है।


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प्रेम कविता

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शब्द उभरा
वाक्य बना
और यूं बन गयी कविता
कविता शब्दों के साथ बोली
हंसी
मुस्कुराई
और गुनगुनाई
शब्द बार-बार उभरे
होते रहे स्फुरित
और लिखी गयी कविताएं
जो हर बार छूट जाता है
रह जाता है कहीं
अनकहा / मूक
वह सब कुछ
प्रायः समाता रहा कविता में।
कविता की शाश्वतता
चमकती है
बिल्ली की बिल्लौरी आंखों की तरह
कविता की आत्मीयता
शब्द के प्रति झलकती रही।
इस आत्मीयता के साथ
जुड़ी थी शिकायतें और झगड़े।
कविता सदैव कहती रही
अभिव्यक्त करती रही स्वयं को
पर शब्द रहा
बिल्कुल चुप
शब्द प्रतीक गढ़ता
और उन प्रतीकों को चुरा लेती कविता
शब्द नितान्त अकेला है
उसके अकेलेपन की व्यथा
रह-रह कर फूट पड़ती है बाहर
कविता उसके एकान्त को
भरने का उपक्रम करती है ।
शब्द अभिभूत है
इस स्नेहिल उपक्रम से
कविता जानते हुए भी अनजान है
और शब्द चुप रहकर भी कह देता है
कि वह उससे प्रेम करता है।
परम्पराओं से बंधा शब्द नहीं जानता प्रेम की परिभाषा
पर फिर भी
वह गढ़ता है स्वयं के नित ने रूप
आत्मीय रूप
स्नेहिल रूप
और ढल जाता है एक नई कविता में
प्रेम कविता में।


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अवशेष

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दरकती दीवारों में
अनगिनत दरारें
बिन कहे कह रही हैं बहुत कुछ
सदियों की धूप, पानी
और हवाओं के थपेड़े सहकर
इन खण्डहरों की निखर आई है रंगत
कक्षों के शेष बचे अवशेष
और उनकी दीवारों पर
अब भी गहरे तक जमी काई
गवाही दे रही हैं
बरसों पुरानी सभ्यता की।
इतिहास हो गई इमारतें
सैलानियों के लिये कौतूहल है।
क्षतिग्रस्त अवशेष कभी रहे होंगे हरे
और इनमें रचने-बसने वाली सरसता
आज महज महसूस की जा सकती है।
ऊंचाई पर इतिहास को संजोए
भव्य भवनों का झुंड
झांक कर देखता है नीचे बसी
सघन बस्तियों को
और कहता है मूक शब्दों में
कि इन सब का भविष्य भी
हमारे वर्तमान का ही प्रतिरूप होगा।


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रेत में मुंह

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आदमी
रेत में मुंह छिपाकर
शतुर्मुर्ग सा हो गया है अब।
चारों ओर सूचनाओं का
विस्तृत जाल है
परत-दर-परत
खुलते हुए
आदमी विज्ञान हो गया है।
विज्ञान के पास है
सपनों की दुनिया
यह पहुंचा देता है इक पल में
आपको वहां
जहां हैं ताज़े खिले फूल
बिछा मखमल
बहता पानी
अप्सराएं
और आनंद।
लेकिन हज़ारों का बिल भुगतान के बावजूद
आप सूंघ नहीं सकते
फूलों की महक
अनुभव नहीं कर सकते
मखमल का मुलायमपन
और महसूस नहीं कर सकते
उन अप्सराओं को
जो लुटाती हैं आनंद के मोती
और खुशियों के सीप।
धातु के तारों से होता हुए
सम्पूर्ण विश्व
आपके हाथों में है
कई राज
जो शायद हर किसी के पास नहीं।
अब आदमी
कैद हो गया है
इस मकड़जाल में
चाह कर भी वह अब
कुछ छिपा नहीं सकता।
रेत में मुंह छिपाए
शुतुर्मुर्ग को
अब अपना चेहरा दिखाना ही होगा।


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दरवाजे

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मुझे पता है
दरवाजों की परिभाषा
और उनका वजूद
मालूम है मुझे
चौखट और खिड़की की
ऊंचाई का अंतर
दरवाजे साक्षी हैं
भांति-भांति के वजूदों का
अलग-अलग चालों
और
तरह-तरह की महक का।
दरवाजा गवाह है
इतिहास का
और इतिहास की उन तारीखों का
जब-जब उसे बंद होना पड़ा
यह देखता आ रहा है
अपने घटते आकार
और क्षमताओं को
चौखट के दो दरवाज़े
अब एक हो गये हैं
और उग आई है
उसमें एक आंख
अब दरवाजे डरे हैं
सहमे हैं
भयभीत हैं।
दरवाज़े चाह कर भी
पूरे नहीं खुल पाते
अब वे इनकार करते हैं
किसी भी तरह की गवाही से
अपने वजूद में
परिवर्तन के साथ
दरवाजे खुद से बेखबर हो गये हैं।
अब खिड़कियों को
देनी पड़ रही है
दरवाजों की गवाही।


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अबकी दिवाली

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दीए की बाती
अब कभी समझ नहीं पाएगी
लोकतंत्र का अर्थ
जो राजनीति की पेचीदगियों में
उलझ गया है।
'राजनीति' एक ऐसा शब्द
जिसके हज़ार-हज़ार अर्थ हैं
हर अर्थ हर कोण से टेढ़ा है।
सत्ता सुंदरी का मोह
कुछ भी करवा सकता है
किसी भी हद तक ।
अख़बार पढ़ते बच्चे
पूछ रहे हैं
'घोटाले' क्या होते हैं ?
तीस हजारी से विज्ञान भवन तक
चक्कर लगाता लोकतंत्र
थक गया है।
लोकतांत्रिक जनता रोटी चाहती है
और वे 'चारा' खा रहे हैं।
मुम्बई में माइकल की मादकता पर
जनता मदमस्त हुई ।
बंगलौर में परीलोक से
अवतरित हुई
अधनगी विश्व सुंदरियां।
घूंघट से झांकती दिए की बाती
बता रही है कि तेल ख़त्म होने का अंदेशा
दिग्भ्रमित मतदाता,
त्रिशंकु सरकारें,
उपेक्षित जनता
शेयरों का उछाल
महंगाई की धमाल
लक्ष्मी की प्रतीक्षा
खाली थाली
कैसे मनेगी
अबकी दिवाली ?


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तुम्हारी आंखें

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तुम्हारी आंखों का क्रम
आंखों से शुरू होता है
और आंखों पर ही खत्म हो जाता है।
वैसे आंखें बहुत कुछ कहती हैं
परन्तु तुम्हारी आंखें
सब कुछ कह जाती हैं।
सब कुछ कह जाना
बहुत मामूली नहीं होता
कई तो जुबान से ही
कुछ नहीं कह पाते
यदि वे कुछ कहते भी हैं
तो उनका कहना
कई-कई अर्थ लिए होता है ।
उनकी बातें
शब्दों के चुनाव से शुरू होती है
और अर्थों के उलझाव तक जाती है
उनके सामाजिक होने का स्वांग
मुझे सदैव विचलित करता है।
पर तुम्हारी आंखें
मौन रह कर भी
मन की बात कहती हैं
साथ ही मन की इच्छा को भी पढ़ लेती हैं।
तुम्हारी बड़ी आंखें
आशाओं का बहुत बड़ा संसार है
इसमें छिपी चमक
मेरे मन को
प्रफुल्लित कर देती है
तुम्हारी आंखें
मेरे लिए बातों का माध्यम
और मेरे शब्दों के लिए
ईर्ष्या का विषय है।

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गुंजाइश

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यूं करो
कि अब देखने और सुनने की
बिल्कुल गुंजाइश न बचे
चमक की चकाचौंध से
चुंधिया गयी हैं आंखें
आंखों का देखा / मन पढ़ता है
और आंखें मन को वही पढ़वाती हैं
जो वे चाहती हैं।
यूं करो कि अब जो मन कहे
वही देखे आंखे।
अब समय चश्मा उतार देने का है।
चिल्लपों के बीच
कान के पर्दे सख्त हो गये हैं
शोर और संगीत का भेद
कान नहीं कर पा रहे हैं अब
बहुत कुछ सुनते हैं कान
जो मन नहीं सुनना चाहता।
यूं करे
कि कान अब बहरे हो जाएं
और सिर्फ वही समझें
जो मन कहे
वही सुने जो मन चाहे।
अब मन को ही
तय करनी होगी
देखने और सुनने की गुंजाइश।


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जानना ज़रूरी है

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जीने के लिए
जरूरी है जानना
कुछ बिना जाने ही जीते हैं
तो कुछ
सदैव उत्सुक रहते हैं
जानने के लिए
हम बहुत कुछ जानते हैं
और बहुत कुछ नहीं
शासन पर जमी परतों को
अब हटाने का समय आ गया है ।
आदमी के जीने के लिए की गयी कवायदें
कितनी पुख्ता हैं
ज़रूरी है इसकी सूचना
कितने फीसदी की घोषणा हुई
और कितनी फीसदी पहुंचा ?
इसके लिए टटोलने होंगे कागज़
सड़क बनाने के लिए डाले गये पत्थर
बरसों से क्यों कर रहे हैं
कोलतार का इंतज़ार?
एनिकट निर्माण की राशि
कम क्यों पड़ गयी ?
हत्या, आत्महत्या में
कैसे हुई तब्दील?
परीक्षा में अनुत्तीर्ण
मंत्री का भतीजा
साक्षात्कार में
कैसे हुआ पास ?
हमें इन सबकी चाहिए सूचना
जानना है हमें कि
जितना लिखा जाता है हमारे नाम
उतना पैसा क्यों नहीं मिलता ?
दिन भर मजदूरी करके
गढ़ते हैं महल
फिर क्यों टपकती है
हमारी खपरैली छतें ?
आटा, नमक, तेल
क्यों होते जा रहे हैं
हमारी पहुंच से दूर?
हमें इन सबकी जानकारी चाहिए
हमारे जीने के लिए
ज़रूरी है यह सब कुछ जानना।


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एक टुकड़ा आसमान

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जीवन भर मर-खट कर
जुटता है कुछ पैसा
कटता है पेट
दबती हैं इच्छाएं
और भर पाती है
सम्भावनाओं की गुल्लक।
आदमी को चाहिए
एक टुकड़ा आसमान
अन्न उगाने को नहीं
घर बनाने के लिए।
अन्न उगाने के लिए
अब कोई नहीं खरीदता ज़मीन
किराए के छोटे से मकान में
टुकड़ा-टुकड़ा बंटता है आदमी
बंटती हैं खुशियां
निरन्तर बंटती जाती हैं योजनाएं।
सुनहरे कल को पाने में
आदमी की केश राशि
चांदी जैसी हो जाती है।
जमीन के टुकड़े पर
आदमी बनाता है मकान
अपने लिए नहीं
बेटे के लिए
आदमी का बेटा
आदमी से तेज होता है
सोचने में और करने में।
आदमी जीवन भर की कमाई से
खरीदता है एक टुकड़ा ज़मीन
बेटा
पाना चाहता है एक टुकड़ा आसमान
जिसमें समाई हैं
सम्भावनाएं और सर्जनाएं
बेटा जानता है
आसमान के लिए
उसकी गुल्लक बहुत छोटी है
और कुछ खाली भी
फिर भी वह
हरदम
सोते-जागते
लिखता है आसमान पाने की इच्छा।
एक टुकड़ा आसमान
कविता नहीं
एक विचार है
जिसमें मूर्तता पाने की छटपटाहट
बहुत कुछ करने की इच्छा है
कुछ नया बनाने का उत्साह है
एक टुकड़ा आसमान
बेटे के लिए
महज कल्पना नहीं है
इसमें समाई है
यथार्थता
कर्मशीलता
विचारों की सतत गति
और प्रयासों का पैनापन।
बेटे को विश्वास है
यह टुकड़ा एक दिन जरूर बनकर उभरेगा
एक सम्पूर्ण आसमान।

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सूरजमुखी की कविता : बरगद के लिए

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बरगद के नीचे
कुछ भी नहीं पनपता
या कि बरगद अपने नीचे
किसी को पनपने नहीं देता
प्रयोग के तौर पर
रख दिया बरगद के नीचे
सूरजमुखी लगा एक छोटा सा गमला
वाकई बरगद फुफकार उठा
अपने सान्निध्य में
किसी को पनपते देख
और उसने रोक दी
उसकी धूप
हवा
पानी
और खिलने का उत्साह।
बरगद ने रोक दी सूरजमुखी की पहचान
रोक दी उस तक आने वाली
हर नजर को ।
पहले से सूरजमुखी का बरगद से
अधिक परिचय नहीं था
बस जानते भर थे एक दूजे को
पर उसके नीचे आते ही उसे
पता चला कि
दूर से दिखने वाली विशालता
अंदर से कितनी बौनी है
सूरजमुखी ने देखा
कई कंटीली झाड़ियों को
बरगद के नीचे बिल्कुल हरी भरी ।
बरगद को इनसे
कोई शिकायत नहीं थी
सूरजमुखी के गमले की मिट्टी
काफी गीली है
हवा चुरा लेता है थोड़ी-थोड़ी
और मन में फैली
आत्मविश्वास की धूप से
गुजर जाएगा प्रत्येक ग्रहण।
सूरजमुखी को पूरा विश्वास है
कि धूप पहुंचने ही वाली है उस तक
तब उसकी आभा
सौंदर्य और वजूद के आगे
बरगद रहेगा रूखा, सूखा
और फीका पहले की तरह
लेकिन कुछ समय की कुंठा के जवाब में
सूरजमुखी का फूल लिखता है एक कविता...
'बूढ़े, रूखे और खोखले
बरगद के तले
फूटने वाले हैं कई अंकुर
ज्वालामुखी बनकर।'

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मन का सम्मान

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कभी-कभी
हारने की हद तक
होता है हौसला।
नियमित रूप से सहनी होती है
ऐसी स्थिति
तब अंदर जुटाया हुआ आत्मविश्वास
असंतुलित हो जाता है।
निरंतर उपेक्षा
आदमी को बनाती है ढीठ।
किसी से अपेक्षाएं रखना
उसे गतिशील बनाता है
उसकी गतिशीलता
अपेक्षा करने वाले की ही
गतिशीलता का परिचायक है ।
प्रशासन चलाने का काम
कभी-कभी थोपा जाता है
ऐसे लोगों पर
जिन्हें अपेक्षा और उपेक्षा
का अंतर बिल्कुल पता नहीं होता है
ऐसे लोगों से
परेशान रहते हैं उसके अधीनस्थ
पर कह कुछ नहीं पाते हैं
कर कुछ नहीं पाते
गूंगे जो होते हैं।
गूंगापन बरसों से
रचा-बसा है इनकी रगों में
प्रशासन पर थोपे गये लोगों की
दो प्रजातियां होती हैं
दोनों विचित्र और मौलिक।
पहली
थोपे जाने की मार से मुंह की खाते हैं
दूजी
थोपे जाने की मार को
सहयोगियों पर मारते हैं
(कथित रुतबा भी हो सकता है यह)
ऐसे विचित्र अधिकारी
बहुत जल्दी पा लते हैं वांछित सफलता
पर / पहुत जल्दी खो देते हैं
अधीनस्थों से मिलने वाला
मन का सम्मान।


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'आप' नहीं 'तू'

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स्नेह से सराबोर
ममता का सागर
त्याग और जीवट की प्रतिमूर्ति
अविरल श्रमरत
मेरी मां की मां
जो मेरे लिए मेरी मां से बढ़कर है।
मैं उसे तब से जानता हूं
जब मैं उसके हाथों में था।
घर कैसे बनता है
घर कैसे चलता है
और घर में भौतिक सम्पदा से भी
इतर कुछ होता है
वह उसकी ज्ञाता है
इतना ज्ञान जितना कि
गृह विज्ञान विभाग की अध्यक्ष
को भी न होगा।
वह अक्षरों को बहुत धीरे-धीरे
सोच-सोच कर पहचानती
और पढ़ती है
परंतु उसके हृदय में
सद्व्यवहार का व्याकरण अंकित है
वह फर्राटे से पढ़ लेती है
सामने वाले का स्वभाव और विचार।
पैरों में श्रम की भंवरी
प्रतिपल कुछ निर्माण सर्जना
और स्नेह का विस्तृत भंवर जाल
मैं ही नहीं पूरा परिवार
उलझा हुआ है उसमें।
खेत से सर पर उठा कर लाती
हरे भुट्टों वाले डंठल
और भर देती है बोरी में
मेरे साथ भेजने को।
खाने पीने की हर फरमाइश को
पूरा करने में तत्पर है वह
उसने मुझे कई बार खिलाया है
गाजर का हलुआ।
थक कर चूर होने के बाद भी
नहीं रुकना उसकी आदत है।
निरन्तर श्रमरत रहने की
उसकी कार्यशीलता को
प्रणाम करते हुए भी
मैं यह सब आज तक उससे नहीं सीख पाया ।
पिछले बीस बरस में
मैने उसके चेहरे पर शिकन नहीं देखी
कहीं कोई शिकायत नहीं
कोई गुस्सा नहीं
वह जब भी रोती है
मैं भी खुद को रोक नहीं पाता।
उसकी अति भावुकता
मुझे कतई पसंद नहीं
दूसरों का हौसला बुलंद करने वाली
खुद रो पड़ती है
छोटी-छोटी घटनाओं पर
उसके आंसूओं की एक-एक बूंद
अन्तर्मन की अभिव्यक्ति है
मैं उसे 'आप' नहीं कहता
वह मेरे लिये 'तू' है
और इसी तू में बसा है
गहनतम अपनापन।
आज भी हर विदा की वेला में
वह मुझसे कहती है
सड़क पार करते सावधानी रखने को
और मां से नहीं झगड़ने को ।
वह मेरी कविताओं की प्रेरणा है
मेरी नानी
दुनिया की सभी नानियों से बढ़कर है
ठसी नानी बहुत कम को
मिलती है
अभी मैं इस वट वृक्ष की
छांव में
ढेरों वर्ष
गुजारना चाहता हूं।
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मुट्ठी में बंद सपने

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हथेली के पसीने में
फिसलते हैं कभी
तो रुक-रुक कर थामता हूं
उझकने को होते हैं कभी
अंगुलियों की दरारों से तो
हाथों को ऊपर उठा कर
रोकता हूं
मुट्ठी में बंद सपनों को।
मुट्ठी में बंद सपने
जितने चमकीले होते हैं
उतने ही गतिशील भी
प्रयासों से जितने चमकते हैं ये
शिथिलता में उतने ही दुबले हो जाते हैं
कमज़ोर रक्त विहीन ।
चेहरे पर
उग आया तनाव
सपनों को चटकाने में
भागीदार बनता है
परेशानी में
सर से उपजी
कमर तक पहुंची खाज
कदमों को रोक देती है
कभी हवाएं तेज होती हैं, शीतयुक्त
तब सपने ठिठुर उठते हैं।
बहुत कुछ कहना चाहते हैं सपने
हौले से गुनगुनाना चाहते हैं सपने
सपने उड़ना चाहते हैं
तितलियों के मानिन्द
सपने दिखना चाहते हैं।
अब सपने
बहुत संवेदनशील हो गये हैं
ठेठ मन तक पहुंच रखते हैं ।
सपने खुलकर बोलना चाहते हैं इन दिनों
पर हवाएं सुनना नहीं चाहती उन्हें
अब सपनों को कुछ दिन
सचमुच धरना होगा धीरज।

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बुत

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बिजली गिरी
और उठकर चली गयी
बरसात हुई
और पानी बहकर चला गया
रात हुई
और अंधेरा सुबह-सुबह
सूरज की रोशनी से धुल गया
किंतु मैं
बुत सा खड़ा था
खड़ा ही रह गया
मौसम मेरे कानों में
जाने क्या कह गया।


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आधुनिकता

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वीणा के सुरों को
कुछ लोगों ने सुना
और नज़र अंदाज़ कर दिया
शास्त्रीय संगीत से
समझदार लोग
किनारा कर गये
वे शहनाई के स्वरों को
अंग्रेज़ी में बांच रहे थे
पश्चिम से आ रहा था
चीखता संगीत
जिस पर देश के
सब लोग
नाच रहे थे।


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अपेक्षा मत करो

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सपने में बनाए महल को
साकार रूप देने का
पूरा-पूरा प्रयास कर रहा हूं।
मैं/आत्मविश्वास की
हर ईंट के साथ
महल को मजबूती देने की
पूरी-पूरी कोशिश कर रहा हूं।
अपनी सामर्थ्य के अनुसार
हर संभव करने में जुटा हुआ हूं
हर उम्मीद से बढ़कर
प्रदर्शन करना चाहता हूं
हर कसौटी पर श्रेष्ठता के साथ
खरा उतरना चाहता हूं मैं।
धरती पर पैर जमाकर
आसमां छूना चाहता हूं।
मैं
वह सब कुछ पाना चाहता हूं
जो मेरी कल्पनाओं में बसा है
जो मेरे मन को जंचा है
मैं वह सब कुछ पाना चाहता हूं
जिसकी खुशबू हर पल
मेरे मन के झरोखों से
मानस तक प्रवाहित होती रहती है।
बस
यही कुछ है मेरे पास
अब यदि तुम इससे ज्यादा
आशा करोगे मुझसे
तो शायद मैं वह नहीं कर पाऊंगा
तुम्हारी वे आशाएं जो
मेरी पहुंच
और मेरे वजूद से भी ऊपर हैं
जिन्हें मैं कूद कर नहीं छूना चाहता।
मैं सीढ़ी वाला आदमी हूं
बहुत धीरे-धीरे चढ़ता हूं
लापरवाही के साथ।
परिश्रम बहुत ज्यादा नहीं कर पाता हूं
बहुत चाह कर भी।
कभ-कभी भावनाएं डोल भी जाती हैं
हल्के-हल्के
हवाओं के झोंकों के साथ।
ज़रूरत से ज्यादा
आशाएं मत रखो ।
निश्चित रूप से
तुम जितना समझते हो
मैं उतना सामाजिक
और सार्वजनिक शायद नहीं हूं।
मेरा अपना एक तरीका है
सोचने
और करने का
तुम उसी से प्रभावित हो
यह मुझे मालूम है
पर तुम्हें यह नही मालूम
कि मेरे में भी
कोई 'मैं' है
जो मेरा अपना है
विशुद्ध व्यक्तिगत।
मैं अपने सम्पूर्ण अन्तःकरण से
श्रेष्ठ करने का प्रयास कर रहा हूं
तुम्हारी ज्यादा आशाएं
मेरे आत्मविश्वास को हिला देती हैं
कभी-कभी अंदर तक
सिहर भी उठता हूं
कि तुम मुझसे कितनी अपेक्षाएं रखते हो
अगर मैं उतना नहीं कर पाया
जितना तुम चाहते हो
तो मैं कुछ नहीं सुन सकूंगा।
मुझसे इतनी अपेक्षाएं मत करो
कि मैं विचलित हो जाऊं
मुझे अपने तरीके से
अपने सपनों के महल को
साकार रूप और जीवन्तता देने दो
जब यह पूरा हो जाएगा
तब मैं खुद आगे बढ़कर
तुमसे
बधाई स्वीकर करने आ जाऊंगा।


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आदमी

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तमाम संभावनाओं
और आशंकाओं के बीच
आसमां से ऊंचा
उठ गया है आदमी।
आदमी
यानी कि जिन्दा हकीकत
भावनाओं का पुलिंदा
संवेदनाओं
विचारों
और कल्पनाओं की आकाश छूती
श्रृंखलाओं का कारीगर ।
धीरे-धीरे
गढ़ता रहता है
पिन से प्लेन तक
टीन से ट्रेन तक
और क्रमशः बुनता रहता है
महीन-महीन धागों वाली
सम्बन्धों की झालरें।
झालरों में चमकीले प्रशंसा के हीरे
हर दम चमकते है।
आदमी
हर दम करता है कोशिशें
दहकते आत्मविश्वास के साथ
ऊपर चढ़ने की
कभी-कभी
बिना सहारे के
बहुत ऊपर
उठ जाता है आदमी।
नेम प्लेटों की चमक से चमकता आदमी
गाड़ियों के शीशों में दमकता आदमी
हर गली के हर मंच पर
पूरे जोश से चहकता आदमी
कभी वातानुकूलित महक
और नरम, रेशम, मुलायम बिस्तर पर
दिन भर की थकान उतारता है
तो कभी कम्बल के सहारे
सोते हुए कुत्तों के किनारे
ठिठुरते अदिसम्बर में
दुबका हुआ आदमी।
समस्त उदारीकरण
व खुलेपन के बावजूद
चौराहों, गलियों, सड़कों
और फुटपाथों पर
पूरी दयनीयता के साथ
दया की आशा में
अपनी कमर को
झुका देता है
फैला देता है हाथ / क्योंकि
कुछ पाने के लिए
कुछ भी कर सकता है आदमी।
आदमी हत्या कर सकता है
अकिसी की भी, कभी भी
आदमी मार सकता है
अपने प्रेम
भावनाओं
और उसूलों को
अपनी सद्भावनाओं को
कहीं भी, कभी भी।
आदमी अपनी कल्पनाओं को
मूर्तता देता है
रात-रात भर जग कर ।
आदमी रोता भी है
अपनी विफलताओं पर
रात रात भर ।
कभी अकेला ही
एकान्त में कोसता है
खुद को ।
आदमी बदल रहा है निरन्तर
घड़ी की सुईयों के साथ
आदमी
आदमीयत की आत्मीयता को
संवेदनहीनता के साथ पढ़ता जा रहा है
निरन्तर
आगे बढ़ता जा रहा है
क्षण-प्रतिक्षण
खुद से बहुत दूर
निकल रहा है आदमी।


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आंसू

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हर भावुक क्षण में
बहने वाला
आंसू का एक-एक कतरा
कितना अमूल्य होता है
इसका अहसास
हर वह व्यक्ति कर सकता है
जिसे आंसू का मोल पता है।
तुम्हारे आंसुओं का बहना
मुझे प्रायः विचलित कर जाता है।
मैं कह ही नहीं पाता हूं
कि तुम्हारे आंसू कितने कीमती हैं?
बस मेरा एक आग्रह है तुमसे
कीमती कतरों को इतना ना बहाओ
कि यह मेरे आंसुओं को
निमंत्रित कर ले ।
भावुक क्षण हर व्यक्ति
की अनमोल उपलब्धि है
एक स्नेहिल अनुभूति है।
इस अनुभूति को
मानस में संजोए जाओ
मेरा आग्रह है
उन्हें आंसुओं में न बहाओ।


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रिश्ते

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भावनात्मक रिश्ते
कोमल संवेदी तंतुओं से बने होते हैं।
थोड़े से आवेग में
टूट जाते हैं / छिटक जाते हैं।
आश्चर्य है मुझे भावनाओं पर
और भावनात्मक रिश्तों पर।
ये रिश्ते जो किसी को सम्बल देते हैं
मजबूती देते हैं
ऊर्जा देते हैं
परन्तु स्वयं इतने कमज़ोर होते हैं कि
हवा की हल्की सी बेरुखी
भी सह नहीं पाते ।
भावनाएं मासूम होती हैं इसलिये टूटती हैं
और फिर जुड़ती हैं
इन्हें कुटिलता नहीं आती।
इनके टूट कर
फिर जुड़ने से गांठ नहीं पड़ती
क्योंकि रिश्ते धागे नहीं होते
रिश्ते ऊर्जा होते हैं
विश्वास होते हैं
और वे समेटे होते हैं
आशा भरा एक सुनहरा संसार
इसलिए टूट कर फिर जुड़ने के बाद
रिश्ता फिर पा जाता है ऊर्जा
एक नई स्फूर्त ऊर्जा
फिर कभी न टूटने के लिए


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स्मृतियों का दौर

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स्मृतियों के घेरे में
श्रद्धाओं का दौर
कब तक चल पया.... ?
उफनते भावावेग की गहराईयां
पंक्तियों के शब्दों को
बिखेर गयी बेतरतीब
छलकते घट का नीर
आंचल भिगो गया
किंकर्तव्यविमूढ़ता
उड़ा ले गयी
अक्षरों की आकृति
स्मृतियों की वक्रता
और
श्रद्धाओं का दौर
अन्ततः
स्वप्न नहीं है।

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मेरे लिए तुम

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समन्दर की एक लहर हो
मेरे लिए तुम ।
जो बहुत ऊपर उठकर
नीचे आते हुए
मुझे अन्दर तक भिगो जाती है।
मेरे लिए तुम
'बेड स्विच' से जुड़ी बहुत छोटी ट्यूब लाइट हो
जिसकी दूधिया रोशनी में
मैं देर रात तक पढ़ता रहता हूं खुद को।
तुम गंगाजल की अंजुरि भर बूंदें हो मेरे लिए
जिन्हें गटक कर मैं स्वयं को पवित्र करता हूं
तुम मेरे लिए हो मुट्ठी भर उजास
जिसे मैंने हथेली पर रख
अंगुलियों से ढक दिया है
और इसी उजास की प्यास
निरन्तर बनी हुई है मेरे लिए।
तुम मेरे लिए हो आंसू का एक कतरा
जो बेहद मुश्किल से निकलता है
ठीक उस शब्द की तरह जो
तुम्हारे लिए
मेरा प्रेम अभिव्यक्त करता है।
बस इसीलिए तुम "तुम" हो
जिसमें मेरा 'मैं' समा गया है।


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मेरा शहर

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मेरे शहर का व्यस्त चौराहा
चीखती हैं घबराती गलियां
ऊंची-ऊंची मीनारें
चिढ़ाती हैं मुझे
चौड़े विस्तृत कॉम्पलेक्स
करते हैं अट्टहास
कहीं चुभती हैं फांस
तेज गर्मी का कहर
सहता है मेरा शहर ।
धुंआ उगलती हैं अमिलें
पेड़ों पर ठुकी हैं कीलें
दूर-दूर तक
रेत के टीले ही टीले ।
हवा तपी-तपी खामोश है
पंखों की हवा में रोष है
कुएं, बावड़ियां, तालाब
और
सूखी सी नहर है
ये मेरा शहर है।
गुलाबों को हो गया है पीलिया
पानी रोगी हो गया है
हवा की गरमी में
सूरज ने माचिस जलाई है ।
लगता है
धरती की सूरज से सगाई है ।
प्यासा है मन
पर होंठ गीला है
मेह अवकाश पर
आसमान नीला है
सड़कें तवा हो गयी
लू जवां हो गयी
पर लोग....
फिर भी भाग रहे हैं
बदहवास
दिन का तीसरा पहर है
ये मेरा शहर है।



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गंतव्य

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मैंने कभी नहीं चाहा
कि बढ़ जाऊं आगे
चीर कर इस अंधेरे को
निर्वसन जिजीविषा की तलाश में।
गुजरता हूं
एक लम्बे और संकरे पुल से
नंगे पैर
तब लगता है
मेरे पदचिन्ह पुल की सड़क पर
गहराई से उतर गये हैं
और मैं उन्हें चाहकर भी
मिटा नहीं सकता
पुल के नीचे से बहती
जलराशि का आवेग
मेरे वैचारिक आवेग से
कई गुना तेज है
फिर भी....
चाहकर भी मै उसे
नहीं दे सकता आदेश
कि मेरे उन अमिट पद चिन्हों को
साफ कर दे
छोड़ आया हूं जो पीछे
किसी राही के लिये
जो झूठ से पराजित हो
सच का अस्तित्व
अपनी आंखों को दिखाना चाहता है ।
कभी-कभी तो मानस की संज्ञाएं
शतरंज के मोहरों सी
शताब्दियों से निरुत्तर
त्रिशंकु से लटके
मौत के सन्नाटे को पार कर
ज़िन्दगी की सच्चाई की
खोज में निकलती है ।
फिर भी
ठसा लगता है कि
मन के किसी अज्ञात खण्ड में
अदृश्य शंका और विषाद का निवास है
जाने कब
मुझे पीछे से आवाज देकर
रोक लगा कोई उद्वेग
और मांग लेगा कारण
पीछे छूटे हुए
पदचिन्हों का
जिसका उत्तर
निर्वसन जिजीविषा भी
नही दे पाएगी ।
मैं मूक खड़ा
ताकता ही रह जाऊंगा
शून्य में छिपे अपने गंतव्य को।



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विडम्बना

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दिखाता रहा वह
उम्र भर लोगों को रास्ता
अपना अनुसरण करने के लिए
ताकि
बता सके
और दिखा सके वह
कि
क्या खोजा
और क्या पाया है उसने ।
मगर अफसोस
उसके पीछे कोई नहीं आया।
'गुजरने' के बाद
उसने देखा
उसकी 'अर्थी' के पीछे
चले जा रहे थे
सैंकड़ों लोग।


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संवेदनहीनता

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मैं
सोचता हूं कभी-कभी
विचारता हूं देर तक
वह स्थिति
जिस मानसिकता में हम जी रहे हैं
आखिर कब खत्म होगी
यह अन्तहीन मौन बहस ?
क्यों नहीं चाहता है कोई
किसी की प्रगति ?
रोकता है क्यों बढ़ने से आगे
कपट के फंदों का निर्माण
आखिर कब खत्म होगा ?
जो बढ़ते पैरों को रोक
बढ़ते को नीचे गिरा
संवेदनहीनता में जी रहे हैं
फिर भी संवेदनाओं का ठेका ले रहे हैं
जड़ स्थिति और मानसिकता की
तथा कथित ऊंचाईयां छू कर
वे हजार-हजार बददुआओं
के बाद भी
झूठी सफलता के झंडे लहरा रहे हैं ।
झंडे टिके हैं
ना जाने किस आधार पर ?
फिर भी
मेरी सोच विवश है
कि हवाओं में इतनी शक्ति नहीं
कि वह अपनी ऊर्जा से
आधारहीन डंडे को पटक कर
झंडे को दूर
सच्चाई की रोशनी में
उड़ाकर ले जाए।


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तुम्हारा प्रश्न

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तुम
मुझे पूछ रहे हो
कि मैं कौन हूं?
मैं तो
सदियों से सुन रहा हूं
इस सन्नाटे को
देख रहा हूं नीरवता
बांसुरी का स्वर
अभी भी गूंज रहा है कानों में ।
जब झपकाता हूं पलक
तो लगता है सोचते-सोचते
बीत गयी है सदी
मगर जब सिर्फ सोचता हूं
तो लगता है
कुछ ही क्षण तो हुए हैं आए।
कौन जीत सका है समय से ?
समझ नहीं पाता हूं
चल रहा हूं
या चलाया जा रहा हूं ?
खुद की परिभाषा
मुझसे संभव नहीं होगी।


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सोमवार, 22 मार्च 2010

रिक्तता

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रफ्तार और रिक्तता
शहर के
प्रतिकूल हम सफर
कहां ले जाएंगे
मन की गठरियों को
ठिठुरते राजमार्गों पर
कौंधती हवाएं
बीमार मन: ऀBस्थिति को
खींच रही हैं
वेग से।
जहां का तहां है
आदमी भाग कर भी
बेबसी की सिसकियां समेटे
भीड़ में अकेला खोजता है
अस्तित्व।
रिक्तता की परिधियां उलझ गयी हैं
कई मूक सवालों की तरह।
अब दूर क्षितिज पर
गुनगुना रहा है कोई।
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मुट्ठी भर खुशियां

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बढ़ते है उनके
शक्ति भरे और पुष्ट हाथ
छीनने को
उनकी झोली से
कुछ सुख
थोड़ी शांति
और चेहरों पर फैली
वेदना भरी मुस्कुराहट
केवल
अपनी ही
मुट्ठी भर
खुशियों के लिए।

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प्रेम की इबारतें

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मेरे शहर की
हर सड़क
खुदी हुई है
दूर-दूर तक
पैरों की आहट से
पलकों के छोर तक
लम्बी, अनन्त
और जीवन्तता की सहचरी
सद्भावना की संगिनी
स्नेह और ममत्व में डूबी
मां की लम्बी-लम्बी मीठी बातों सी
प्रेम की इबारतें
बांचता है हर एक की भावना
चलता, भगता या दौड़ता
कोई पथगामी
छोड़ता है धीरे से
अपनी निःश्वास
अधरों के कम्पन से उच्चारित
कुछ अस्पष्ट सी वेदना
सांसों की गर्मी
और अनुभूतिजन्य आवेग
झील से उठती
मौन लहरों की
बिखरी सी परिभाषा है।
इबारतों के हिज्जे
अब इमारतों की छाया
रहते हैं मूक
ताकते हैं कातर
दर्प से सना
यह रक्तिम हृदय
कुछ कह देगा कभी...
मत कहना इसे
व्यक्तित्व का अतिक्रमण
चौपायों की कुचलाहट
या
पश्चिम की कैमरा दृष्टि
बदल देगी परिभाषाएं
तार-तार हो जाएंगी सड़कें
और
मानस के अंतिम अंतर्द्वन्द्व तक
उठती और गिरती रहेगी
किंकर्तव्यविमूढ़ता की
सैंकड़ों आवृत्तियां
और उसका वेग
नाप या माप नहीं पाएगा
तुम्हारा कोई यंत्र
चीख कर
झुंझलाओगे तुम स्वयं ही पर
मगर खोज नहीं पाओगे
सड़कों की भग्न काया पर
प्रेम की इबारतों के चंद हिज्जे
और
तुम्हारी कल्पना से भी
बाहर हो जाएगी
झील की लहरें
और उसकी निःश्वासित मौन परिभाषाएं।


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परिभाषा

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चिंचियाती चिड़ियाओं की
चहकती ध्वनि
चीखते शब्दों की
परिभाषा नहीं है ।
तेज अंधड़ से जूझती लताएं
जाने कब
साथी से अलग हो जाए
मगर
बिखरते मोतियों की चमक
चकोर के चंदा की
परिभाषा नहीं है।
नाव डूब जाए
सागर में
और एक हो जाए
उस गगन दृष्टि में
मृत्युंजय और प्रस्थान
अग्रभाग का सीमोल्लंघन
मनुज के जीवन की
परिभाषा नहीं है।


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सत्य

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सात दशक लांघ चुका
हड्डियों का खोखला ढांचा
सिकुड़ती चर्म व्यथा
झुर्रियों का मर्म
और
महानगरीय फुटपाथ पर
सिसकती, सुबकती
और चीखती भूख
कब दम तोड़ेगी?
अर्द्धनग्न सत्य
अनदेखा हो
कैसे सम्भव है ?
देखती हुई नज़रें
झुग्गियों से उठता
भूख का जयघोष
असहनीय गंदगी से रूबरू
घण्टों खड़े रहकर
दम साधे
प्लास्टिक और कचरा जुटाती
भविष्य की
साकार प्रतिमूर्तियां
आखिर कैसे और कब
समाजवाद ला पाएगी ?
इनके घृणास्पद
अर्द्धनग्न सत्य पर
कटे फटे
पेबंदी कुर्तों की
प्रदर्शनी इसीलिए टांगी जाती है
ताकि उनका वैभव
बिना किसी बाधा के अभिवृद्धि पाता रहे
नालियों की गंदगी
और कचरे का ढेर
इनका देवता है
और चुनी हुई
बहुमूल्य गंदगी
इनकी पूजा।


****************************

दर्द

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क्षितिज के उस पार
नीली चादर ओढ़े
तारों की रोशनी में
स्मृतियों का दर्द छिपा है ।
घाटी की ढलान
और वृक्षों के झुरमुट में
महकते कुसुमों के बीच
चमकती दो आंखें
बुलाती हैं इशारे से
सम्बोधन के दायरों को लांघ
औपचारिकताओं का पल्लू छोड़
निर्विकार भाव से वर्तमान की मशीन
और अतीत के पर्दे पर
दर्शाई जाती है
टूटे शीशे सी विकृत परछाईयां
अतीत की स्मृतियों का
दर्द अंकित है जिनमें।
आईने में
प्रतिबिम्ब
पूछता है मुझसे
अश्रुओं की परिभाषा
और सम्बोधनों का अर्थ
क्षितिज के पार
नीली रोशनी में
कौन सा दर्द छिपा है ?


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शहर की सड़क

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शहर की व्यस्त सड़क पर
भ्रमण करते हुए
एक प्रबल अभिव्यक्ति
मुखर हो उठती है
आखिर इस खामोश सड़क ने
जग भर का कोलाहल
मोटरों की घरघराहट
और धना दम घोटू धुंआ
घटना-दुर्घटनाओं का भार
अपने पर क्यों ढो रखा है ?
विचारों का कम्पन
बहुत ऊपर
शून्य तक पहुंचता है.... ।
रोजाना सड़कों पर मरते लोग
ध्वस्त होते सपने
असमय ढेर हुई लाशें
विचार श्रृंखला को भर देती हैं
गंतव्य तक पहुंचने से पूर्व ही
चिन्तन मार्ग भटक जाता है
खो जाता है
क्षितिज के पार तक
बिखरे / भीगे / संस्पर्श युक्त
विचारों का रेला खो जाता है
मैं उन्हें पुन: मानस में
खोजने का उपक्रम करता हूं
तभी
व्यस्त सड़क से गुजरता
एक भारी भरकम ट्रक
अपने नुकीले / तीखे / धारदार
हॉर्न से विचार श्रृंखला की
कड़ियों को तोड़ते हुए
आंखों से ओझल हो जाता है।

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तारीख

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जब पलटता हूं
कलैण्डर का हर एक पन्ना
हर तीस / इकतीस को
फिर भी
इस कम्प्यूटराइज््ड दिमाग को
मतलब समझ नहीं आता
कि तारीख क्या है ?
रोज उग आता है सूरज
पूरब से
बिना किसी से पूछे
आज्ञा लिये
और डूब जाता है
अपनी नित्य प्रति की यात्रा के बाद।
अंधेरा भी आ जाता है
ठसा ही होता है प्रतिदिन
रोजाना बदली जाती है तारीखें
पलट जाते हैं वार
और कभी-कभी तो संज्ञाएं और आदमी भी।
मगर फिर भी मैं अपनी जिज्ञासा लिए
देखता हूं बाहर की चहल-पहल को।
जल्दी है सबको
कहीं पहुंचने की (कहां ?)
भागम भाग / रेलमपेल
जिसका अर्थ मैं गले नहीं उतार पाया
कोई कहता है कि तारीख समय है
वही समय
जिसका दूसरा नाम घड़ी है
परख लिया उस
सेल और कांटे लगे डिब्बे को भी
जिसके वृत्त में बारह तक गिनती लिखी है
यह भी तो वैसी ही है
जैसा सूरज है
उसके छोटे-बड़े
धातु के कांटे भी तो
घूमते रहते हैं पल-प्रतिपल
और फिर उसी गोले में लगाते हैं चक्कर
आखिर क्या है अर्थ इसका
कहां हो रही है प्रगति ?
घूम अफिर कर जहां के तहां
आंख पर पट्टी बांधे
कोल्हू के बैल नहीं तो क्या है ये ?
सर्वत्र मनीषी / बुद्धिवादी
जिसे समय कहते हैं
उसका अर्थ आज तक
समझ नहीं आया
पहली तारीख आगे की
तीस तारीखों को रौंद कर
महीने का पन्ना पलटवा देती है
और ये जनवरी
सितम्बर-अक्टूबर को लांघते हुए
दिसम्बर तक तो
कलैंण्डर को रद्दी बना देता है
फिर चलता है वही क्रम
जो अब तक चला था
चलता रहेगा
पर मैं नहीं समझ पाया कि आखिर
तारीख क्या है ?

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रुपया

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हे रुपये
तू तो
रंग बरंगा
सुसज्जित
आकर्षण है।
सरकार ने भी
तुझे
खूब देखा भाला
फिर अचानक
तू कैसे हो गया
काला ?


****************************

तुम

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हे महामानव
क्यों हो मौन
आखिर क्यों ?
अपनी विफलताओं
चिरंतन संस्कृति
या अतीत की स्मृतियों का दर्द
कब तक समेटे रहोगे
तुम्हारी चुप्पी
अब स्वीकृति नहीं समझ पाएगी
तुम कायर कहलाओगे
लौटा दो उस अभिशप्त वेदना को
खोखली चिन्ता को
भूतहे डर को
जो तुममें समाया है
आखिर तुम समर्थ हो।
कस लो मुट्ठियां
कदम बढ़ाओ / तुम सबके हो
सब तुम्हारा है ।

****************************

मैं

****************************
प्रतिकूलताओं
चपलताओं
और समय की गति के साथ
मैं
कब सहज हो पाऊंगा ?
ऊंची दीवारों
टूटते सहारों
रेत, बर्फ, घुटन और धुंआ
मैं
कब समझ पाऊंगा ?
शून्य क्षितिज के पार
सूरज के द्वार
पलाश के फूलों तक
मैं
कब पहुंच पाऊंगा ?
सूरजमुखी की खुशबू
रेत पर कचनार
तुम्हारा प्यार
मैं
कब पा पाऊंगा ?

****************************

मृगतृष्णा

****************************
मानवीय दुखों की आत्मानुभूति
जब जीवन के मरुस्थल पर
सुखों की चाह
छद्म मृगतृष्णा को जन्म देती है,
तब दुखों की पराकाष्ठा
सूक्ष्मतम लोचन से
प्रतिबिम्बित गहराई को
परिलक्षित करती है।
जीवन को
आत्मसात करने के लिए
छोटा रास्ता अन्वेषित रकना
सुखों के पीछे
बेतहाशा भागना
द्वितीय श्रेणी का व्यवसाय
क्या
रोटियों की कीमत
श्रमधारा की उपेक्षा कर
मानसिक आत्मघात द्वारा
प्रात की जा सकती है ?
अगर हां,
तो यह उच्च वर्ग के लिये मामूली बाल क्रीड़ा
मध्यम वर्ग के लिये
आर्थिक विषमताएं
और
निम्न वर्ग के लिये
मृगतृष्णा सिद्ध होगी।
चंदा की शीतलता
और सूरज की तपन
मेरे सुखी दिल की
दुखी वेदना के
हम जोली हैं
जो कभी अलग नहीं हो सकते
महज कायरता है अलगाव।
प्यार की मद्धिम मोमबत्ती
तपिश से गल जाएगी
बर्फ की चट्टान पर
ठिठुरते अधनंगे भविष्य को
वर्तमान का आदिम सत्य
आअखिर
कब स्वीकार पाएगा ?

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न्याय

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न्याय खड़ा है आज स्वयं कटघरे में
प्रतीक्षा है पेशियों की
मुकदमा है लम्बा बहुत
और वकील बड़ा महंगा है
डरता है आदमी
न्यायालय द्वार
सुलझने / जुड़ने से पहले
आंतरिक टूटन से डर से
क्यों कि आजकल न्याय
बड़ा मशहूर है
ये आम आदमी से
बहुत दूर है।


****************************

दीप

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दीप
तेरी धवल ज्योति में
अतीत की स्मृतियां पली।
तेरी छत्र छाया में हुआ
महामानवों का जन्म
परिस्थितियों के ग्रहण
लगते रहे मगर
तिमिर को चीर कर
तेरी ज्योतिर्मय किरणें
पथ प्रदर्शक बनती रही।
पीढ़ियां आईं
चली गयीं
विचारों के ज्वार भाटे
क्रन्दन करती कल्पनाएं
सदैव निराशा के गर्त से
रिसती रहीं
फिर भी तुमने
ठिठुरती जिजीविषा को
गर्मी दी
गति दी
और हम
अतीत से आज तक का सफर
पलक झपकते ही तै कर गये
मगर इस यात्रा के
अप्रत्यक्ष विषादों की अनुभूति के
केवल तुम हो साक्षी।
तुम्हारी बाती सदैव
हमारी सहचर रही है
उन बीते दिनों का साथ
अविस्मरणीय है
तुम्हारा साहस भरा सम्बल
मैं कभी भुला नहीं पाऊंगा
निर्जीव होने पर भी
सजीवता की प्रतिकृति हो तुम
आने वाले समय को
अपना मार्गदर्शन देते रहना
और सदैव की तरह
वर्तमान के अतीत को
भविष्य का वर्तमान बनाते रहना।

****************************

शनिवार, 13 मार्च 2010

वसंत आ गया

****************
सरसों के पीले फूल
बजाने लगे हैं तालियां
नव कोंपलें मुस्काती हैं
गीत सुनाती हैं कलियां
प्रकृति का रूप
सबको भा गया।
हर तरफ
नवोत्कर्ष छा गया
हरियाली सरसा रही है
वसन्तोत्सव में हर तरफ
नव उत्सव छा गया है
प्रकृति ने श्रृंगार किया
देखो वसंत
आ गया है।
***********

उड़ा गुलाल

***********
उड़ा गुलाल
मदमस्त है मौसम
चली पिचकारी
गली गली।
झूम रहे हैं
फूल पलाश के
इठला रही है
कली-कली
गालों पर
रंगों का आलम
पकड़ वसंत को
रंग डाला,
नीला पीला
रंग लगा है
मतवाला।
चली फागुन की
पुरवाई है
उड़ रहा
हर ओर रंग।
हर एक रंगा है
इस मौसम में
हर कुएं में
पड़ी है भंग।

*****************

धूप

*********
धूप अब खिसकने लगी है
हवा के झोंको के साथ
आंगन की तुलसी तक ।
छांव रह-रह कर
सिर तक आती है
धूप बहुत जल्दबाज हो गयी है।
धूप
अब नहीं सुखाती है
दाल, धनिया और काचरी।
नहीं बताती है
समय की गति और त्यौहारों की सूचना।
धूप को अब नहीं सुहाता है
उसके साथ बैठ कर गन्ना चूसना
और लाल पके बेरों को खाकर
उसकी गुठलियां उछालना।
धूप बात नहीं करती अब
ना गर्माती है ठण्डाए बदन को
और ना ही दादा के नहाने की
बाल्टी में भरे पानी को
गर्म करती है।
मेरे घर का नक्शा
अब अर्ध्य देने जैसा नहीं रहा।
मैं अब खड़े होकर / पंजों के दम पर
ताकता हूं धूप को ।

************

व्यथा

*************
बरसों से देख रहा हूं
उस विशाल बरगद को
उसका आकार
शाखाएं और
घनी ठण्डी छांव
ज्येष्ठ माह की चिंगारियों में
अनुभूति देती थी ठण्डक की
उसकी बड़ी-बड़ी शाखाओं में
सैकड़ों घोंसले थे
कोटरों में चहकते थे पक्षी
चूजों के खुले मुंह में दाना डालती चिड़ियाएं
सौंदर्य की अनुभूति समेटे
सतरंगे मोरों के जोड़े
पपीहे का मदमस्त स्वर
मर्म को भेदती
कोयल की उदास गूंज
मानस को सुकून देते थे
पर....
मालूम ही नहीं चला
विषाद की रेखा
कब ऊपर से गुज़र गई
और इतिहास के काले कौओं ने
बरगद पर अधिकार कर लिया
बाज सा झपट्टा मारा
गिद्ध जैसा नोचा
गीदड़ों जैसा धमकाया उसने
और
इसी खींचतानी में बरगद पीला पड़ गया।
कुछ शाखाओं ने विद्रोह किया
और उन कौओं को उड़ाया
मगर जाते-जाते वे
कई शाखाओं को
काट कर
अलग कर गये
जो बाद में धीरे-धीरे
नीम और बबूल में तब्दील हो गयीं।
शांति हुई
बरगद ने फिर
नव कोंपलों को जन्म दिया
मगर वह विषाद-रेखा
बरगद में हमेशा के लिए
समा गयी थी
और उसी के कुत्सित रूप ने
अविश्वास को जन्म दिया।
सब सिमटते चले गये
एक छोटे से घेरे में
और उसी में कैद होकर रह गये।
अविश्वास की मजबूत जड़ों ने
चबूतरे को बिखेर दिया
बरगद के पत्ते झड़ गए
बचे हुए
अपने अस्तित्व के लिए
अभी भी संघर्षरत हैं
पीला मुरझाया बरगद
तूफान और आंधियों के
झोंकों से जूझ रहा है
पक्षियों के कलरव की जगह
कांव-कांव ने
ले ली है।
बरगद की हर शाखा
स्वार्थी सी
अपने अस्तित्व को तलाशती है
तभी तो बरगद को
अपना ही अस्तित्व
खोजना पड़ रहा है।
**********

व्यथा

*************
बरसों से देख रहा हूं
उस विशाल बरगद को
उसका आकार
शाखाएं और
घनी ठण्डी छांव
ज्येष्ठ माह की चिंगारियों में
अनुभूति देती थी ठण्डक की
उसकी बड़ी-बड़ी शाखाओं में
सैकड़ों घोंसले थे
कोटरों में चहकते थे पक्षी
चूजों के खुले मुंह में दाना डालती चिड़ियाएं
सौंदर्य की अनुभूति समेटे
सतरंगे मोरों के जोड़े
पपीहे का मदमस्त स्वर
मर्म को भेदती
कोयल की उदास गूंज
मानस को सुकून देते थे
पर....
मालूम ही नहीं चला
विषाद की रेखा
कब ऊपर से गुज़र गई
और इतिहास के काले कौओं ने
बरगद पर अधिकार कर लिया
बाज सा झपट्टा मारा
गिद्ध जैसा नोचा
गीदड़ों जैसा धमकाया उसने
और
इसी खींचतानी में बरगद पीला पड़ गया।
कुछ शाखाओं ने विद्रोह किया
और उन कौओं को उड़ाया
मगर जाते-जाते वे
कई शाखाओं को
काट कर
अलग कर गये
जो बाद में धीरे-धीरे
नीम और बबूल में तब्दील हो गयीं।
शांति हुई
बरगद ने फिर
नव कोंपलों को जन्म दिया
मगर वह विषाद-रेखा
बरगद में हमेशा के लिए
समा गयी थी
और उसी के कुत्सित रूप ने
अविश्वास को जन्म दिया।
सब सिमटते चले गये
एक छोटे से घेरे में
और उसी में कैद होकर रह गये।
अविश्वास की मजबूत जड़ों ने
चबूतरे को बिखेर दिया
बरगद के पत्ते झड़ गए
बचे हुए
अपने अस्तित्व के लिए
अभी भी संघर्षरत हैं
पीला मुरझाया बरगद
तूफान और आंधियों के
झोंकों से जूझ रहा है
पक्षियों के कलरव की जगह
कांव-कांव ने
ले ली है।
बरगद की हर शाखा
स्वार्थी सी
अपने अस्तित्व को तलाशती है
तभी तो बरगद को
अपना ही अस्तित्व
खोजना पड़ रहा है।
**********

परिवर्तन का दौर

*****************
महंगी हो गयी सच्चाई
मिलती नहीं
अब सहानुभूति
बहुतायत है ईर्ष्या की
और हर ओर
लक्ष्मी का ज़ोर है
नारों का शोर है
धीरे-धीरे आदमी हो रहा है
रोबोट
ये परिवर्तन का दौर है।

**********

दिवाली

**************
बहुत उदास है
फुटपाथ का त्यौहार
और बोरी में भरा
कचरा प्लास्टिक
आज दुकानें बंद हैं
लाएं क्या ?
खाएं क्या ?
अपनी तो
हर पूनम की रात काली है
जब सोती है भूख
भरा हो पेट
तब हर दिन दिवाली है।

*****************

शब्द

***********
असीम सम्भावनाओं के धनी
अभिव्यक्तियों के स्वामी
भावनाओं के प्रस्तोता
संवेदना के सर्जक
मौन हो तुम
क्यों ?
सांसों में तुम्हारे विचारों की गर्मी
आंखों में पैनापन
प्रस्तुति में प्रखरता
सद्भावनाओं का सान्निध्य
प्रेम की प्रगाढ़ता
और निश्छल अपनापन
फिर भी तुम मौन हो ?
विषाद के गहन अंधकार
निराशा की नीरवता में
चिन्तन
शिल्प और सौंदर्य के सर्जक हो तुम ।
उलझनों के कुहासे
अन्तर्मन के धुंधलके को हटा दो
पहचानों अपनी सत्ता
हर किसी के
भाग्य का फैसला
अब तुम्हारे हाथ में है।
***********

शब्द

***********
असीम सम्भावनाओं के धनी
अभिव्यक्तियों के स्वामी
भावनाओं के प्रस्तोता
संवेदना के सर्जक
मौन हो तुम
क्यों ?
सांसों में तुम्हारे विचारों की गर्मी
आंखों में पैनापन
प्रस्तुति में प्रखरता
सद्भावनाओं का सान्निध्य
प्रेम की प्रगाढ़ता
और निश्छल अपनापन
फिर भी तुम मौन हो ?
विषाद के गहन अंधकार
निराशा की नीरवता में
चिन्तन
शिल्प और सौंदर्य के सर्जक हो तुम ।
उलझनों के कुहासे
अन्तर्मन के धुंधलके को हटा दो
पहचानों अपनी सत्ता
हर किसी के
भाग्य का फैसला
अब तुम्हारे हाथ में है।
***********

बुधवार, 10 मार्च 2010

सोचना बंद करो

**************
तुम
क्यों सोचते हो
कि जैसा सोचते हो
वैसा हो ही जाएगा
अगर तुम्हारे सोचने से ही
काम चल जाएगा
तो गलतफहमी में हो
धरातल पर आओ
जैसा तुम करना चाहते हो
उसे ठोस प्रयासों का आधार दो
कार्य कोई भी हो
प्रयास मांगता है।
बहुत फासला है विचारों और प्रयासों में
करने और मरने तक का।
महीन धागों से बुने होते हैं
सामंजस्य और समझौते
हर अंतर पर मजबूती मांगते हैं वे
पतंग के मांझे की तरह।
तुम सोचते हो
अपने श्रम, विवेक और आत्मविश्वास से
तोड़ दोगे चट्टान
पर फिर भी
कदम-कदम पर
सामंजस्य व समझौते
कर लेते हो
क्यों सोचते हो तुम कि
जैसा सोचते हो
वैसा सोचने लगे बाकी लोग।
युग दौड़े जा रहा है
समय के साथ
और तुम पैदल ही हो
आश्चर्य है तुम
और तुम्हारी सोच पर।
फिर सोचो और सोचकर देखो
कि क्या वह भी वैसा ही सोचती है
जैसा तुम ...।
तो
सोचना बंद करो
समय सिर्फ करने का है
सोचने वाला हर कोई
अब समझदार नहीं समझा जाता है यहां।
**************

तुमसे बात नहीं करूंगा

*********************
दो अंगुलियों के बीच से
सिगरेट का धुंआ
जब तुम्हारे पेट से टकराकर
छल्लों के रूप में
निकलता है
कॉलेज की सड़क पर
हाथों में किताबें लिए
तुम कक्षा की बजाय
कैन्टीन की ओर मुड़ जाते हो
निर्विकार भाव से
बिना किसी उद्देश्य के।
अब कॉलेज जाने से पहले
तुम नहीं छूते पापा के पैर
मम्मी को नहीं बताते हो
कि कब तक लौट आऊंगा
मैं यह सोचता हूं
कि तुम यह सोचने लगे हो आजकल
कि तुम अब बड़े हो गये हो
तुम्हारे दोस्त भी बड़े-बड़े हैं
भावनाओं की दुहाई देते-देते
तुम अब स्वयं भावनाओं से रहित हो गये हो।
मुख्य सड़क पर अपने बड़े दोस्तों के साथ
तुम बजाते हो सीटियां
आ जा रही लड़कियों पर ।
कभी तुम झगड़ते हो
गुत्थम-गुत्था
चिल्लाते हो, जोर-जोर से
देते हो गालियां
देखते हो फिल्में
भाग-भाग कर
कक्षाओं से।
मांगते हो उधार
इधर-उधर से ।
पापा को चाहिए जितने 'पर्सेंटेज' तुमसे
तुम उन्हीं के लिए
ढूंढते हो 'पेपर' / बदहवास
देर रात ठण्ड के दिनों में
घर आने से पहले
गुजरते हो तुम
छोटी अंधेरी गली से
तब भौंकते हैं कुत्ते।
सोचते हैं पापा
बेटा मेरा बड़ा हो रहा है
पर मैं तुमसे अब
बात नहीं करना चाहता
अब तुम दिन-पर-दिन
असामाजिक होते जा रहे हो
और
तुम स्वयं से ही
अनभिज्ञ हो।
सुन लो
मैं अब तुमसे बात नहीं करूंगा।
******************

मेरी मंज़िल

*********************
शायद
अब मैं बन नहीं पाऊंगा
डॉक्टर / इंजीनियर।
प्रदर्शन कर नहीं पाऊंगा
घर वालों की आशा के अनुरूप
मुझे पाना नहीं है
कोई बड़ा पद
या बड़ा ओहदा
मैं तो वह चाहता हूं
जो शायद तुम नहीं चाहते होंगे
मुझे अभी सीखना है
जीने का तरीका
व्यवहार करने का सलीका
और मुस्कुराने का ढंग
खोजना है अभी मुझे
मेरी कल्पनाओं की मूर्तता
पाना है मुझे अभी
सोचने की ऊंचाई
और विचारों की गहराई
आत्मसात करना चाहता हूं
संस्कारों की सजीवता
और परम्पराओं की ताज़गी
अगर मैं सोच लूं
यही कि मंजिल मेरी भी है वही
जो उसकी, इसकी या तुम्हारी है
तो क्या अन्तर रह जाएगा
उसकी और मेरी संवेदनाओं में।
दुनिया की हर खुशी को
अपनी बनाना चाहता हूं
मैं मुस्कुराना और
खुलकर
खिलखिलाना चाहता हूं
ठसे नहीं जैसे.....।
मैं अपने जीवने के
हर पल को
हर क्षण को
सजीवता से जीना चाहता हूं।
**********************

बेटा

******************
एकदम सफेद
कांच सी चमकीली
पारदर्शी
शुभ्रता को संजोए
यह पर्वत है या महापुरुष / महा तपस्वी ?
हाड़ कंपाती ठण्ड में
बर्फ का ओवरकोट पहने
रोक कर अपनी सांसे
थाम लेता है हवाओं को / बादलों को
मां के लिये
करता है त्याग
तापमान का पारा
जब नीचे हो जाता है शून्य से भी
तब
रुक जाता है शहर
थम जाता है शोर
बंद हो जाते हैं कार्यालय
सब के सब ।
वह
खड़ा है ठसे
हवाओं को रोकते
बारिश की बौछारों को सहते हुए
अपनी सम्पूर्ण जिजीविषा
तमाम चेतना
और संवेदना के साथ
मां के लिये।
गर्व है मां को
हिमालय पर
चाहती है मां
सबके बेटे हो
हिमालय सरीखे
जैसा हिमालय मेरा।

********************

घंटियाँ

************
बजाते रहे
सदियों से
मंदिरों की घण्टियां
पर भगवान नहीं आए
कितनी अटल है हमारी आस्था
हर दिन
सुबह और शाम
बजाते हैं घण्टियां / जोर जोर से
पर भगवान सुनता ही नहीं
और ना ही आता है हमारे पास
आश्चर्य है मुझे इस स्थिति पर
और इससे बढ़कर
आश्चर्य है
हमारी सहनशीलता पर
जो निरन्तर बजा रहे हैं घण्टियां
ऑफिस में दो-दो बार
घण्टी बजाने के बाद भी
जब चपरासी उसे
नहीं सुनता है
तो
छूट जाता है हमारा धैर्य
गनीमत है
चौथी घण्टी में वह आ तो जाता है
घण्टी भगवान के लिये हो या चपरासी के लिए
घण्टी तो घण्टी है
घण्टियों के कई प्रकार हैं
हर प्रकार नया और मौलिक
कभी दिल की घण्टी बजती है
तो कभी चुनावी नारों और घोषणाओं की
विषयों को बदलने का कार्य
करती है विद्यालय की घण्टी
तो कभी चीखकर बुलाती है फोन की घण्टी
हमारा परिवेश घण्टियों का परिवेश है
पर दुर्भाग्य
भगवान से लेकर आम आदमी तक
इसे सुनने वाला
यहां कोई नहीं
है तो केवल बजती हुई घण्टियां
और मैं..... ।

****************************

सोमवार, 8 मार्च 2010

मुश्किल

*********************
हंसना
मुस्कुराना
हर पल जीना
मुश्किल हो गया है।
फुर्सत कहां है
अपने से ज्यादा कि देख सके
दूसरों की ओर ।
आत्मकेंद्रित
और असहिष्णुता की परिधि में
प्यार
भाईचारा बढ़ाना
पी जाना गुस्से को
कितना मुश्किल हो गया है ।
हर कदम पर साथ है किंकर्तव्यविमूढ़ता
पल-पल टकराते हैं विचार
समर्पण / प्यार
और स्नेह की माला को सीना
कितना मुश्किल हो गया है।
*********************

अंगुलियां

******************
हथेली के साथ
जाने कब से उगी हैं
अंगुलियां ।
अंगुलियां यानी कि
लोकतात्रिक सरकार
कुछ भी कर सकने में सक्षम
कभी अकेली उठती है
तो करती है आरोप
और अंगूठे के साथ मिलकर तर्जनी
लिख देती है कुछ / कभी
तो असम्भव सम्भव और
मुमकिन नामुमकिन हो जाता है
तर्जनी अपनी साअथिन अंगुली से मिलती है
तो हो जाती है 'पक्की'
वही 'पक्की' जो कभी
टूट गयी होती है
छोटी अंगुली की नाराजगी से ।
अंगुलियां कुछ भी कर सकती हैं
हर जगह, हर समय ।
बंधकर तन जाएं अंगुलियां
तो बदल जाते हैं तेवर ।
अंगुलियां करती हैं
फैसला भाग्य का
बदलती हैं नक्षत्रों की दिशाएं
पहनती हैं अंगूठियां
जिसमें सजे रहते हैं
मूंगे मोती नीलम और हीरे।
ये कभी नचाती हैं किसी को
अपने वजूद पर
हर अंगुली पर बांध कर धागा
कठपुतलियों के मानिंद।
कभी अंगुली पकड़कर
रास्ता पाती है पीढ़ी
कभी अंगुली के इशारे से
बन जाता है रास्ता
बुलाती है ये कभी किसी को
तो सम्बन्ध हो जाती है 'अंगुली'।
अंगुलियां डॉक्टर की
दिल को छूती हैं
मास्टर अंगुली से दर्शाता है पंक्तियां
छात्रों को।
लेखक विचारों को आकार देता है
अंगुलियों की मदद से।
जलती सिगरेट का धुंआं
पहुंचता है पेट तक
अंगुलियों के बीच से।
जब चटकती हैं अंगुलियां
तो बदल जाते हैं विचार
महकती हैं अंगुलियां
नाखूनों के साथ / नेल पालिश में
तो कभी चमकती हैं
महंदी की दमक के साथ।
बंद कर लो इन सभी अंगुलियों को
अपनी हथेली के साथ
और दिखा दो
कि हमारी अंगुलियां
कितनी सक्षम हैं।
******************

गांव शहर हो गया है


**********************
वैसे तो भागते हैं रोज
पर लोगों में आज तेजी है
'टेंशन' की हवा
मौसम ने भेजी है
दही छाछ और मट्ठा
जहर हो गया है
गांव अब शहर हो गया है।

खेतों की हरियाली ने
सीख लिया है
होना लाल-पीला
उड़ती गोधूलि
बैलों की बजती घण्टियां
और बैलगाड़ी के पहियों
का मोहक संगीत
हो रहे हैं
कैमरे में कैद
दुनयी के हर कोने से
जुड़ने का सुख
सच्च....
पच नहीं पा रहा है।
पानी
नदी से नहर हो गया है।

शाम के धुंधलके में
जलने वाला
दादी का लालटेन
अप्रासंगिक है अब
वर्षों पुराने सहयोगी हाथों में
साम्प्रदायिकता की लाठियां
वैमनस्य की गालियां
स्वार्थों के शब्द
मतभेदों की खटास है
सम्बन्धों के बीच
फंसी
अर्थ की फांस है
सुख चैन और
स्नेहिल सम्बन्धों पर
चिन्ताओं का कहर हो गया है
हर गांव अब शहर हो गया है।
************************

समस्या

*******************
हथेली खुजाते-खुजाते
यूं ही शाम हो गयी
मेरी समस्या
आज फिर आम हो गयी
आंखों में सपनों की 'फाइल'
दिल में आकांक्षाओं की स्याही
मेरी संवेदनाएं
पंसेरी की उधारी से ब्याही
जेब हल्की है
आज तो शांत है भूख
सोच कल की है।
महंगाई के चौराहे पर
मेरी भावनाएं
आज फिर नीलाम हो गयीं ।

अब नहीं रहा
वह समय
जब सिर्फ
भावनाओं से भर जाता था पेट
अब बहुत ऊंची है
हर 'रेट'
बड़ों के लिए यह समस्या
बहुत है छोटी
मगर मेरे लिये तो सबसे बड़ी है रोटी ।

डिब्बे हैं खाली
बेरोजगार है थाली
फुटपाथ से उठकर
आज भूख
फिर मेरे नाम हो गयी ।

इन डिग्रियों का बोझ
कब तक उठाऊंगा मैं
नौकरी के गीत
जाने कब तक गाऊंगा मैं
विचार ठहर गए हैं
सब के सब
काम ढूंढने शहर गए हैं
सारी बातें अब अटपटी हो गयी
जब से
खुशबू रोटी की चटपटी हो गयी ।

सोचा था
अपने प्रयासों से
बदल दूंगा दुनिया
उठ जाऊंगा आसमां से ऊंचा।
मन के हर कोने पर
छा रही उदासी है
उद्देश्यों की श्रृंखला में
अब शामिल चपरासी है
भोर से पहले
बस्ते लादे
सब बच्चे कहां जा रहे हैं ?
मेरी विद्या आज फिर
बदनाम हो गई।

********************

अनकहे शब्द

********************
फिर एक बार
मुझे
अपना अति आत्मविश्वास
असफल लगा
जाने क्यों
मैं अपनी भावनाएं और
व्यथाएं
अन्तर्द्वन्द्व
व्यक्त नहीं कर पाया
वह निर्विकार सी
मासूमियत की छतरी ओढ़े
मुझे द्वन्द्व की बरसात में
भीगते हुए
देखती रही
एकटक
पर फिर भी मैं
कुछ भी नहीं कह पाया
शायद वह मेरे मौन को ही
मेरा भाषण समझ गयी
वह तो
सब कुछ सुनने
और जानने को उत्सुक थी।
आज तक
किसी भी खाली पृष्ठ पर मैं नहीं लिख सका
कि मैं उन शब्दों की सर्जना क्यों नहीं कर पाया
वह
जाने क्यों यूं ही चली गयी
सब कुछ समझ गयी हो
फिर मिला
जब कभी उससे
तो ज़रूर पूछूंगा
कि
क्या समझ लिया था तुमने
अनकहे
शब्दों को ?

****************************

आईना और अकेलापन

******************
आईने में प्रतिरूप
लुभा नहीं पाया मुझे
अकेला खड़ा आईना
बन नहीं सका मेरा मित्र
फिर भी रोज ताकता हूं
उसमें स्वयं को
अकेलेपन की व्यथा
शायद कभी
इसके चटकने के साथ ही
सार्वजनिक हो जाएगी
क्योंकि
टूटे कांच के हर हिस्से पर
मैं अलग-अलग कोणों से
बिखर जाऊंगा हज़ार चेहरों में
हो सकता है यह
सत्य ही हो
फिर भी
आईने के टूट जाने से
मैं
फिर अकेला हो जाऊंगा

**************************

अपने होने का अहसास


*******************
अपने ही शहर में
अपने होने का अहसास
नहीं कर पाता हूं
हर तरफ एक अजीब सी
अपरिचितता है
पड़ोसी को नहीं पहचानते हम
लोग एकान्तप्रिय हो गये हैं
अकेले में खो गये हैं
विज्ञान ने जितना जोड़ा
उतना ही तोड़ा है
अब हर चौराहे पर अजनबी चेहरे हैं
दिन भर की शोर भरी हवा में
सअहिष्णुता दब गयी है
लोग झपट पड़ते हैं एक दूसरे पर
जरा-जरा सी बात पर
अफराधों में बढ़ोतरी
और दरोगाओं की चांदी
एक साथ होती है
लोकतंत्र की इमारत में
राजनीति के गलियारे
खूब लम्बे, टेढ़े-मेढ़े
सीलन भरे और बदबूदार
जन-प्रतिनिधि
अब मन प्रतिनिधि
नहीं बन पा रहे हैं जनता के
क्षणिक अधिकारों से
जेबें भर गयीं हैं।
झोपड़िया भूखी हैं
सदन में विधेयक पारित होने से पूर्व
होता है हंगामा
कपड़े फटते हैं
शोर-शराबा / जूतम पैजार
टीवी पर सीधे प्रसारण की व्यवस्था है
अब प्रतीक्षा अगले चुनावों की है।
पांच साल का बच्चा
प्लेटफार्म पर आग्रह करता है
बाबूजी पॉलिश करवा लीजिए
सबसे बड़ी कचहरी
बच्चों के श्रम पर पाबंदी का
आदेश जारी करती है
मैं चमकते जूतों के साथ
पार करता हूं "हैवी ट्रैफिक"
और ढूंढता हूं अपने ही शहर में
अपने होने का अहसास।
****************
(इस रचना में प्रयुक्‍त छायाचित्र को अभिषेक-के- सिंह ने अपने कैमरे में कैद किया है )

हथेली पर वसंत


*******************************
मैं गुनगुनाता हूं
तुम मुस्कुराओ
हथेली पर सरसों उगाना
अब आसान हो गया है
उषा की प्रथम रश्मि सी
तुम्हारी निश्छल मुस्कान
मन में दमक भर देती है
खिलखिलाकर हंसना
थकान, निराशा, चिन्ता
काफूर कर देता है
मैं एकदम उड़ने लगता हूं
पतंग की तरह गोते लगाता हूं हवा में
शेरपा और हिलेरी के पीछे भी
ज़रूर रही होगी कोई मुस्कान
मैं भी चढ़ना चाहता हूं
अब ऊंचे शिखरों पर
मैं गुनगुनाता हूं
तुम खिलखिलाओ
हथेली पर पीले फूलों का खिलना
अब शुरू हो गया है
काला चश्मा, नीली टोपी लगाए
बहुत गंभीरता से
बिना गुनगुनाए
आ रहा हूं तुम्हारे पास
तुम ज़ोर से लगाना ठहाके
मैं हरा हो जाऊंगा
"पामिस्ट्री" की किताबें रद्दी हो गई हैं
रेखाएं मिट गयी हैं
पर्वत मैदान हैं
हथेली पर उग आया है वसन्त
आओ हम वसन्तोत्सव मनाएं
और बन्द कर लें इस उत्सव को मुट्ठी में
फिर मैं गुनगुनाता हूं
तुम मुस्कुराओ
मुट्ठी से निकलेगा प्रफुल्लित
एक टुकड़ा वसन्त
और उतरेगा सूखी धरती पर।

****************************

घर

*******************
गुलाबी चौकों से चढ़कर
झालरदार फूलों का
स्नेह भरा स्वागत
चौखट कमरों में
सहजता की सरिता
आंगन की क्यारी में
चमेली और रातरानी की खुशबू
मेरे लिए घर की कल्पना है ।
घर की कोई परिभाषा नहीं होती
घर एक शब्द कोश है
जिसमें हर शब्द
का सौंदर्य है।
घर संजोता है कल्पना
लहलहाता खेत
घर के ठीक सामने
दूर तक फैला हुआ
हरियाली का वैभव
मन को भी हरा करता है।
गेहूं की गठीली बालियां
सरसों का पीताम्बर
और मूंगफली की महक
संजीवनी है।
बड़े सबेरे आंगन में आकर
पसर जाती है एक टुकड़ा धूप
छत जिसमें समाया है
एक टुकड़ा आसमान
झोली भर खुशियां लुटाता
गाता गुनगुनाता
हर उस क्षण का साक्षी है
जिससे घर बनता है
जानती है हवा
कि धूप और आसमान की तरह
घर भी
कभी इतिहास नहीं हो सकता।


*******************************

चिड़िया का चिड़िया होना

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शोर, धमाके
और चिल्ल-पों के बीच
निरंतर जारी है
चिड़िया का चिंचियाना
बहुत सहिष्णु है चिड़िया
मासूम भोली
प्यारी सी
फुदकती रहती है
हर क्षण उल्लास के साथ ।
आकाश छूना चाहती है चिड़िया
छत, मुण्डेर और
सड़क किनारे पेड़ पर बैठी
देखती है हर ओर
माहौल की हकीकत से
परिचित है चिड़िया।
चिंचियाना संजीदगी है
शब्द विहीन चिड़िया
बहुत कुछ कहती है
जो किसी को बताना नहीं चाहती
जताना नहीं चाहती
दिखाना नहीं चाहती
चिड़िया वाकई चिड़िया है।

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अब कविता

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हवा में उड़ती
कोरी कल्पना
नहीं रह गई है अब कविता
धरती से जुड़ी
अनुभवों से महकी
और आदमी के
वजूद के बराबर
आ खड़ी है कविता।
कविता महज शब्दों का भ्रमजाल नहीं
और न ही है
कल्पनालोक की स्वप्नयात्रा।
कविता अब फुदकती नहीं है
फूलों के इर्द-गिर्द भंवरों की तरह
कविता चिरौरी नहीं करती
न गाती है दरबारी गान
कविता दोस्त है आदमी की
इसीलिए
महंगाई के चौराहे पर
आटा और दाल खरीदते
आदमी के साथ खड़ी है कविता।
भागती-दौड़ती ज़िन्दगी को
बहुत निकटता से छू कर
देखती है कविता।
दो बड़े विपरीत विचारों के बीच
कविता खड़ी है
अन्तर्द्वन्द्व के हर दोराहे पर
साथ है कविता।
ज़िन्दगी की जेब में उतरकर
चिल्लर टटोलती है
ऊपर नीचे करती है संकटों के सिक्के
जो हर वक्त खनकते हैं
आदमी के आगे-पीछे
आदमी को ठेठ अंदर से खींचकर
हल्का कर देती है कविता।
दोस्त, सहचरी
मार्गदर्शक सब कुछ है
उत्साहों का बिगुल
थमाती रहती है
विश्वास जगाती रहती है।
जब संचरित होती है कविता
धमनियों में हृदय तक
तब कविता, व्यवस्था की
बेरी हो जाती है
और तब कविता
रणभेरी हो जाती है।
कविता मन की सहचरी है
मन की तह से उठती है
मैं कविता को
मन की आंखों से पढ़ना चाहता हूं
अपने मन के हाथों से
उसे छूना चाहता हूं
कविता चिरंतन है
कविता कभी नहीं मरेगी।

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