रविवार, 24 मार्च 2013

हमारा तो हर रोज अर्थ आवर


डा कुंजन आचार्य

रती को बचाने के लिए कल एक घंटे के लिए लोगों ने बत्तियां बुझाई। यह उपक्रम धरती का प्रदूषण कम करने, कार्बन का उतसर्जन कम करने और पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए किया जाता है। कुछ वर्षों से लगातार हो रहा है। अर्थ अवार मनाने के लिए सभी ने रुचि दिखाइ्र लेकिन मैंने नहीं दिखाई। अब आप सोचेंगे अजीब आदमी है धरती के भले की चिन्‍ता नहीं है इसे। वाकई मैं भी कुछ ऐसा ही मानता हूं। जिनके घरों में 24 घंटे में से एक घंटे ही बिजली आती हो तो बेचारा वो क्‍या अर्थ आवर मनाएगा। उपवास वे लोग करते है जिनका पेट भरा होता है ताकि उनका हाजमा ठीक रह सके। बेचारा गरीब क्‍या उपवास करेगा। उस का तो हर रोज उपवास ही होता है। आजादी के इतने साल बाद भी हमारे गांवों की स्थिति बिजली और पानी के मामले में नौ दिन चले अढाई कोस की तरह है। मेरे गांव की हालत तो यह है कि जब इच्‍छा हो जाए तो बिजली आ जाए ना हो तो ना आए। अब भला इस तरह की स्थिति में जीने वालों को क्‍या पता कि अर्थ आवर किस चिडिया का नाम है। मैंने चम्‍पकलाल को अर्थआवर के बारे में बताया और कहा कि एक घंटा बिजली बन्‍द रखना है तो उसने कहा कि यह उन विदेशियों के लिए हे जो पर्यावरण के लिए खुद बहुत चिन्तित रहते है। हमारे यहां तो हमारी तरफ की चिन्‍ता सरकार ही कर लेती है और हमारी तरफ की कटौती खुद ही कर लेती है।

वैसे हम लोग ना बहुत संतोषी है। कम में भी खुश रह लेते है। जितना मिलता है उतना खाते है। अब हम कोई नेता और पुलिस अफसर तो हे नहीं कि बंधी बांध कर हफ्ता वसूली करते रहे। हम तो जितना मिल जाता हे उसी को प्रभु का प्रसाद समझ लेते है। जब लाल बहादुर शास्‍त्री प्रधानमन्‍त्री बने तब अन्‍न की कमी को पूरा करने के लिए उन्‍होंने देशवासियों से कहा था कि सब एक दिन का उपवास करें। ऐसा हुआ भी और बहुत प्रभावी भी रहा। अब ना तो वैसे नेता रहे ना वैसे अभियान। जो जनजागरुकता के नाम पर होता है उसमें बजट और खाने खिलाने का खेल ज्‍यादा होता है। हमारे यहां के लोग अर्थ आवर को अर्थ मतलब धरती ना समझ कर अर्थ यानी धन समझेंगे। यानी कि एक घंटे में जितना कमा सको कमा लो, बाद में हो सकता है कमाने का आफर निकल ही जाए।

मंगलवार, 19 मार्च 2013

हम तो सदियों से खुश हैं


डा कुंजन आचार्य

जिन को पता नहीं है उनको बता दूं कि आज दुनिया भर में इंटरनेशनल हैप्‍पीनेस डे यानी खुशी का दिन मनाया जा रहा है। इसको देख कर लगता है कि बहुसंख्‍यक दुखी प्राणियों ने मिल कर एक दिन सुख का तय किया है। तय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए आज तो मैं खुश रहूंगा ही। दुनिया कि कोई ताकत मुझे आज इस खुशी से वंचित नहीं कर सकती। ये अजीब अजीब दिन बनाने वाले फिरंगी भी अजीब लोग है। अब भला कोई एक दिन ही खुश कैसे रह सकता है। हम तो भई हर हाल में खुश रहते है। हमारी खुशी से तो विदेशी भी जलते है। चाहे कोई प्रलय आ जाए। धरती फट जाए। सिलेंडर घट जाए। पेट्रोल लगातार रुलाता रहे। बम ब्‍लास्‍ट डराता रहे फिर भी हम तो भई ना डरते है ना दुखी होते है। हर हाल में खुश रहना सीख लिया है हमने। ऐसी प्राचीन मान्‍यता है कि भारतीय सर्वगुण प्रतिभा सम्‍पन्‍न होते है। पडौसी की लडकी किसी के साथ भाग जाए तो बहुत खुश होते है। किसी दुकान में चोरी हो जाए तो भी पडौसी दुकान वाला बहुत खुश होता है। किसी के जीमण में दाल कम पड जाए तो तब तो लोग खुश होते ही होते है। हम हर विपरीत परिस्थिति में भी खुशी बटोरना जानते है। वैसे तो हम भारतीय पत्नियों से बहुत दुखी रहते है। मतलब पीडित रहते है फिर भी यही जताते है कि हमसे सुखी और कोई नहीं। एक पडौसी ने दूसरे से पूछा कि आप पति पत्‍नी खूब ठहाके लगाते हो। इसकी गूंज मेरे ड्राइंग रुम तक आती है। कैसे खुश रह लेते हो भई। साहब ने जवाब दिया जब वह बर्तन मुझ पर फैंकती है और यदि निशाने पर लग जाता है तो वह ठहाका लगाती है और यदि निशाना चूक जाती है तो मैं ठहाका लगाता हूं। एक खतरनाक जुमला भी हमारे देश में ही चलता है कि वह खुशी को बर्दाश्‍त नहीं कर पाया और खुशी के मारे पागल हो गया। खुशी के मारे आंसू भी हमारे यहीं निकलते है। चम्‍पकलाल बदहवास से पोस्‍ट आफिस पहुंचे और पोस्‍टमास्‍टर से बोले भाई साहब मेरी पत्‍नी खो गई है, कुछ मदद करो। पोस्‍टमास्‍टर बोला- भैया ये पोस्‍ट आफिस है पुलिस स्‍टेशन नहीं। चम्‍पकलाल बोला साहब खुशी के मारे मुझे पता ही नहीं चल रहा कि कहां जाऊं और कहां नहीं। पराए दुख से दुबला होने की फितरत हमारी नहीं है। हम हर हाल में खुश है। हम इसके लिए किसी दिन के मोहताज नहीं। खुश रहने का रासायनिक समीकरण तो हमारे मन के अन्‍दर है। इसे किसी दिन में नहीं कैद कर सकते।

गुरुवार, 14 मार्च 2013

उम्र घटाने बढाने का खेल


डा कुंजन आचार्य

चाय की थडी पर खडे दो दोस्त चाय की चुस्कियों के साथ गपिया रहे थे। एक कह रहा था गांव में स्कूल में मास्टर जी ने जब दाखिला किया तो उम्र एक साल कम दर्ज कर दी थी। अब रिटायर्डमेन्ट में एक साल पीछे रह गया। मेरे साथ पैदा हुए सभी लोग इस बार रिटायर्ड हो गए। पीडा जायज थी। यह उस समय की बात है जब जन्म और मृत्यु प्रमाण नहीं बना करते थे। मास्टरजी ने जो लिख दिया वही तिथि पत्थर की लकीर होती थी। इसी प्रकार आप देखिए कि अधिकांश सरकारी कर्मचारियों की जन्म तिथि एक जनवरी यानी नए साल के दिन आती है। यह नहीं होगी तो एक जुलाई होगी। ऐसा इसलिए कि एक जनवरी को याद रखने में पेशानी पर बल नहीं पडते दूसरे एक जुलाई मास्टरजी के लिए मुफीद तारीख है इसी दिन स्कूल खुलते है। स्कूल में दाखिल के समय मास्टरजी अधिसंख्य बच्चों को कागजी तौर पर नए साल के दिन जन्म दिन मनाने को मजबूर कर देते है। चाय की आखिरी घूंट हलक से उतारते हुए दूसरे दोस्त ने कहा यार मेरा तो दूसरा ही लफडा है मैं बचपन में मोटा तगडा दिखता था तो मास्टर जी ने मेरी आयु दो साल कम लिख दी। दोनों अपने बचपन के मास्टर को याद कर ही रहे थे कि पास में बैठे एक साहब का मोबाइल बजा। उन्होंने बात शुरु की और फोन करने वाले को धन्यवाद कहने लगे। कह रहे थे कि भाई शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद लेकिन ये मेरा वास्ताविक बर्थ डे नहीं है। यह तो सरकारी रिकार्ड का बर्थ डे है। फोन बन्द करते ही चाय वाले चम्पा लाल ने भी बधाई दी तो साहब ने कहा कि भई अपना तो साल में दो बार जन्म दिन आता है। एक तो सरकारी रिकार्ड वाला और दूसरा वास्तव में जब मैं पैदा हुआ वो वाला। वास्तविक वाला रिकार्ड वाले से छह महीने कम है। भई उम्र का मामला ही ऐसा है कोई कम करके बताता है तो कोई बढा कर। कहते है महिलाएं अपनी उम्र छिपाकर रखती है। बताना भी पडे तो कम करके बताती है। एक मनोविज्ञानी ने क्या खूब कहा कि महिलाओं की उम्र 25 पर आकर स्थिर हो जाती है। वह चाहे फिर साठ की ही क्यों ना हो जाए। हमारे उपभोक्तावादी दौर में भी उम्र को ही मात करने की बात दिखाई पडती है। एक विज्ञापन में सफेद होते बालों के कारण एक महिला बच्चे को कहती है आंटी मत कहो ना। वहीं दूसरी ओर एक साबुन बेचती अभिनेत्री टीवी पर विज्ञापन में कहती नजर आती है कि मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता ही नहीं चलता। साहित्य में उम्र के किस्से मशहूर है। शृंगार के कवि नायिका को सोलह साल से ऊपर बताना ही नहीं चाहते। रीतिकालीन कवि भी नायिका को षोडशी यानी सोलह साल की कह कर सम्बोधित करते है। कुल मिलाकर सोलह साल बडा खतरनाक साल है। एक हिन्दी फिल्म‍ की एक पंक्ति बताने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं। सुनिएगा- पंडित जी मेरा हाथ देख कर बात बता दो हाल की, साजन अब तक मिला नहीं मैं हुई हूं सोलह साल की। यानी की कुल मिलाकर हमारे लेखकों और कवियों ने सदियों से नायिका की उम्र सोलह तय कर रखी है। इसके लिए ना तो कोई कानून बना ना कोई अध्यादेश जारी हुआ। अब तक चुप चाय वाले चम्पालाल ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। बोला साहब उम्र को घटाने बढाने की बहस का क्या फायदा। संस्का‍र होगा तो वह साठ साल में भी दिखाई देगा और संस्कारहीन है तो वह पांच साल में भी छिपेगा नहीं। चाय पी रहे अन्य लोग चम्पा लाल की बात पर सहमति से मुंडी हिला रहे थे।

बुधवार, 13 मार्च 2013

फायदा चौदह रुपए का


डा कुंजन आचार्य

अब आप भी सोच रहे होंगे कि अजीब टाइप का आदमी है महज चौदह रुपए के फायदे के पीछे बात का बतंगड बना रहा है लेकिन भई अपन तो संतोषी लाल है। एक रुपए का फायदा हो तो भी जिक्र करना नहीं भूलते। यह फायदा चौदह रुपए का है और यह फायदा दिया है उसने जो हमेशा लाखों के घाटे में रहता है। बात रोडवेज की है। रोडवेज की बस बस में यात्रा करना भी एक शानदार अनुभव होता है। इस अनुभव को अनुभव करने वाले लोग बिरले ही होते है। बसों के हाल कैसे है इसका बेहतर जवाब वही दे सकता हे जो इस शाही सवारी का आनन्दल उठा चुका हो। महंगी यात्रा वाले वाहन बेहतर हालत में कहे जा सकते है। अब कहना तो क्याु है। सब जानते है कि बेहतर की परिभाषा क्याह होती है। अब बात निकली है तो कल की बात बताता हूं। एक रोडवेज बस में सफर का मुहुर्त निकल आया तो टल ना सका। बस इतनी अच्छीे थी कि हार्न के अलावा उसका सब कुछ बज रहा था। वैसे भी हमारे यहां सबके हाल ऐसे ही है जिसको जब बजना होता है तब नहीं बतजा है ओर जिसकों जब नहीं बजना होता है तो वहां बज कर सारा हुलिया बिगाड देता है। ये हमारी फितरत का कसूर है। अपनी फितरत तो कानूनी है। कोई काम कानून के खिलाफ नहीं करना है। नियम से काम करो और आनन्द में रहो लेकिन आप तो जानते ही है कि लोग आपको भ्रष्टय बनाने में कोई कसर नहीं छोडते। हर सम्भ व कोशिश करते है कि कोयले की दलाली में काले हाथों का थोडा रंग दूसरों के गालों पर भी मल दे। अब बात फितरत की हुई तो एक और बात मैं बता ही दूं। हमारे यहां जब भी कभी कोई नियम से चलने का प्रयास या दुससाहस करता है तो उसे रोकने की पूरी कोशिया की जाती है। अब आप सोच रहे होंगे पूरी रामायण में वौरह रुप का जिक्र अभी तक नहीं आया। तो जनाब यात्रा का टिकट लेने के लिए मैंने कंडक्टपर की तरफ सत्तीर रुपए बढाए। उसने मेरा चेहरा देखा और बीस रुपए वापस लौटाते हुए कहा कुल किराया चौंसठ रुपए होता है। मैंने सोचा छुट्टे मांग रहा है तो मैंने चार रुपए के लिए जेब टटोली तब वो मुस्कुाराते हुए बोला रखिए ,रखिए, कोई बात नहीं। यह कह कर वह आगे बढ गया। मुण्‍े भी माजरा समझते देर ना लगी। लाखों का घाआ खाने वाली रोडवेज के मुलाजिम ने मुझे 14 रुपए का फायदा पहुंचा दिया है। मैं भी ठहरा नियमी लाल मैंने कहा भाई साहब मेरा टिकट। तो साहब बोले मैं हूं ना। आगे कुछ होता है तो देख लेंगे। आप तो निश्चकतन्तब होकर बैठिए। मैने भी जयादा कुतर्क करने की जहमत नहीं उठाई। मेरे साथ पांच लो और चढे थे। सभी को चौदह चौदह रुपए का फायदा हुआ। उन सहयात्रियों ने अपने इस ुायदे की सूचना अपनी पत्नियों को दी होगी ओर मैं आपको दे रहा हूं।

मंगलवार, 5 मार्च 2013

दीमक, सांप, बिच्छुओं का दौर

डा कुंजन आचार्य

पिछले कुछ दिनों से हर शहर और चौराहों पर छोटे छोटे चींटीनुमा जीव लाखों की तादात में नारे लगा लगा कर प्रदर्शन कर रहे है। पुलिस ने बताया कि इस जीव का नाम दीमक है जो कस्बेग, गांव, खेडो, खेतों, खलिहानों से निकल निकल कर शहर पहुंच रही है और नारे लगा रही है। राष्ट्रीय दीमक महासंघ के तत्वावधान में दिए गए ज्ञापन में कहा गया है कि दीमक के नाम का गलत सलत इस्तेमाल हो रहा है। सार्वजनिक मंचों से उनका नाम ले ले कर उनकी मानहानि की जा रही है। इधर दीमक महासंघ के प्रदर्शन की ब्रेकिंग न्यूज वेन्डी टीवी पर चलते देख सांप और बिच्छु एकीकृत संघ ने भी ताल ठोक दी है। ये भी अपनी अस्मिता के लिए ईंट से ईंट बजाने की बात कर रहे है। वरिष्ठ जीव परिषद ने इस तरह के वक्तंव्यों की घोर निन्दा करते हुए इसे छोटे और लघु जीवों के सम्मान पर सीधा हमला बताया है। संघ ने अपने एक बयान में कहा कि इस तरह से यदि बार बार हमारा नाम लेकर सार्वजनिक मंचों पर हमे अपमानित किया जाएगा तो वे राष्ट्री्य जीवाधिकार आयोग का दरवाजा खटखटाएंगे।
अक्सर देखने में आया है कि लोग एक दूसरे कि तुलना उनकी आदतों के मुताबिक उस तरह के जीव से करते है मसलन इतना काला जितना कौवा। इतना मोटा जितना गैंडा। इतना चिपकू जितनी जोंक। इतना मूर्ख जितना गधा आदि आदि। ऐसी ही अन्य प्रजातियां भी अपनी प्रतिभा के अनुसार प्रकाश में आती जाती रहती है। हम स्वयं भी भेड चाल वाले है और इसलिए कभी कभी खुद को वही समझने भी लग जाते है। खचाखच भरी बस में स्‍वयं की तुलना इन्हीं प्राणियों से नहीं चाहते हुए भी करने लग जाते है। शायद ऐसी ही किसी सूक्ष्म प्रेरणा के वशीभूत होकर हमारे एक केन्द्रीय मन्त्री ने हवाई जहाज के इकोनोमी क्लास में यात्रा करने वालों को पशु वर्ग की उपाधि से नवाज दिया था। वैसे भी घोषित तौर पर हमारे पूर्वज बन्दर थे। कहा जाता है कि इंसान गुस्से में जानवर बन जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि इंसान को अपने अन्दर छिपे जानवर को कभी बडा नहीं होने देना चाहिए लेकिन ऐसा होते हुए तो नहीं दिखता। छोटे गांव से लेकर राजधानी तक छोटी बच्ची से लेकर दामिनी तक हर कोई जानवरों का शिकार हो रही है। यह घोर मूल्यहीनता को दौर है। यहां हर कोई रंगा सियार बना हुआ है।

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

बजट पर नुक्‍ता चीनी

-डा कुंजन आचार्य-

बजट बडा बलवान। जिसका बन जाए उसकी बना दे। जिसका बिगड जाए उसको धूल चटा दे। देश का बजट तो वाकई बडा होता है। बडे बडे लोग चर्चा करते है। बडे बडे लोग प्रतिक्रियाएं देते है। कुछ तारीफ के पुल बांधते है। कुछ नुक्‍ताचीनी कर के उन पुलों को ध्‍वस्‍त कर देते है। अब अपन की गणित तो बहुत कमजोर है। अर्थशास्‍त्र तो है ही पहले से कमजोर। इस मामले में मैं और अमिताभ बच्‍चन बिलकुल एक जैसे है। उनसे जब बजट पर प्रतिक्रिया मांगी गई तो बहुत खूब कहा। जब घर के बजट का ही अन्‍दाजा नहीं है तो देश के बजट पर क्‍या टिप्‍पणी करेंगे। सही भी कहा। हम भी ऐसे ही है। जिनका अपना बजट हमेशा गडबडाया रहता हो वे भला देश के बजट की क्‍या चिन्‍ता फिक्र करेंगे। चाहे जिसके भाव बढा दो। चाहे जिसके भाव कम कर दो। हम तो मस्‍तमौला है। फकीर है। सांसारिक मोहमाया और बन्‍धनों से क्‍या लेना देना। ना नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी। विपक्ष हमेशा से कोसने का काम करता है। कल भी किया। विपक्ष की एक टिप्‍पणी बडी जोरदार रही कि साहब का बजट लोगों को चौबीस घंटे बाद समझ में आएगा। लो जी चौबीस घंटे तो हो गए। मुझे तो अभी भी समझ में नहीं आया, ना आगे आएगा। मैं तो केवल यह जानता हूं कि जिस दिन मेरी जेब का बजट मेरे मुफीद हो जागगा जब देश का, प्रदेश का, जगत का बजट भी समझ में आ जाएगा। अब मैं नाच्‍यौ बहुत गोपाल। आम आदमी को क्रिया प्रतिक्रिया का समय ही नहीं है वह तो लगातार नाच रहा है। महंगाई के सुरों पर ताल दे रहा है। उसके साथ कदम मिला रहा है। पेट्रोल के दामों के अनुसार स्‍कूटर की टंकी छोटी करने की कवायद कर रहा है। नमक तेल के भावों के अनुसार थाली को छोटा करने की कोशिश कर रहा है। बिजली के बढते दामों से लाचार अपने घर की रोशनी कम कर रहा है। आम आदमी क्‍या क्‍या कम करें भाई। बढाने की तो कोई सीमा होती नहीं है लेकिन कम करने की तो सीमा होती है। बढती महंगाई के बोझ के तले दबा आम आदमी अपने दुखों तकलीफों को कैसे कम करें। अपने आसूंओं को कैसे कम करें। इस पर भी तो कोई प्रतिक्रिया दो भाई।

बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

आपत्तिजनक है अमेरिकी रक्षामन्‍त्री का बयान

-डा कुंजन आचार्य-

चक हेगल वह व्‍यक्ति है जिसे दो दिन पहले अमेरिका का रक्षा मन्‍त्री मनोनीत किया गया है। अमेरिका का रक्षा मन्‍त्री होने का अर्थ है एक थानेदार देश की सबसे ताकतवर सेना का प्रमुख। यह वह व्‍यक्ति है जिसका समझदार होना बेहद जरुरी है। रक्षा मन्‍त्री बनते ही आया उनका बयान उनकी इस समझदारी पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगा गया। साहब कह रहे थे कि भारत द्वारा प्रायोजित आतंकवाद से पाकिस्‍तान परेशान है। बडा हैरत में डालने वाला बयान है। सरकार ने हालांकि इस पर आपत्ति जताई लेकिन यहां यह समझना होगा कि अमेरिका केवल जुबानी आपत्तियों की भाषा कभी नहीं समझता है। इसके लिए हमारे विदेश मन्‍त्रालय को कडी आपत्ति दर्ज करवानी चाहिए। हमारे यहां पिछले कुछ महीनों से तरह तरह के रंगों के आतंकवाद की चर्चा हो रही है। बडे पदों पर बैठे लोग आतंक को परिभाषित कर रहे है। चर्चा छेड कर बाद में खेदनुमा माफी मांगते भी दिख रहे है। यह एक नया ट्रेंड है। राजनीतिक परिदृश्‍य में इसे सही से देखने और समझने की जरुरत है। हर बयान के अपने अलग अलग मायने है। हेगल साहब की फितरत को मैं जरा बता दूं कि वे ना तो डेमोक्रेटिक पार्टी के है ना रिपब्लिकन पार्टी के। भारतीय भाषा में कहें तो वे निर्दलीय है। भारतीय राजनीति में निर्दलीय बडा रोल निभाते है। सरकारें बनाने है। गिराते है। खरीदा और बेचा भी इन्‍हें ही जाता है। निर्दलीय बडी खतरनाक चीज होती हे। वह कभी भी कुछ भी कह सकता है। कर सकता है। वह देश काल की सीमाओं से परे स्‍वयंभु होता है। अब स्‍वयंभु है तो उसे कौन रोक सकता है। बस तो समझ लीजिए हेगल भी उसी प्रजाति के नए मन्‍त्री है। बात मजाक की नहीं है। इन महोदय के बयान को अंतरराष्‍ट्रीय परिप्रेक्ष्‍य में गम्‍भीरता से समझने की जरुरत है। अफगानिस्‍तान में अमेरिकी सेना बरसों से बनी हुई है। इसके लिए पाकिस्‍तान पर निर्भरता उसकी मजबूरी है साथ ही दक्षिण एशिया पर नजर रखने के लिए अमेरिका के लिए पास पाकिस्‍तान सबसे बेहतरीन और सुरक्षित जगह है। अपने सामरिक लक्ष्‍यों के लिए अमेरिका बरसों से पाकिस्‍तान को पाल पोस रहा है। बिना शर्त के करोडों डालर की आर्थिक सहायता करता है। नए रक्षा मन्‍त्री और उनके पहले बयान को इसी प्रकाश में देखना होगा कि अमेरिका के तात्‍कालिक स्‍वार्थ क्‍या है और उनको पोषित करने के लिए वह भारत पर कुछ भी आरोप लगा सकता है। आश्‍चर्य तो यह कि सब कुछ जानते समझते हुए हुए भी ओबामा ने इस बयान पर कोई प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त नहीं कि वैसे ही जैसे बयान आने के बाद हमारी सरकार भी कुछ विशेष नहीं कह पाई। विपक्षी पार्टी ने जरुर तीखी प्रतिक्रिया रखी। कुल मिला कर सरकार हेगल के बयान को हल्‍के में ना लें। इससे अंतरराष्‍ट्रीय मंचों पर भारत की छवि कमजोर हो सकती है। इसके लिए हमे सख्‍ती और मजबूती से अपनी बात रखनी होगी तथा इस बयान पर खुल कर अपनी आपत्ति दर्ज करवानी होगी।

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

लो आ गया ...परीक्षा का भूत


डा कुंजन आचार्य

आपने भूतों के बारे में तो सुना ही होगा। भूतों के कई प्रकार होते है। हमारे देश में सभी वेराइटी के भूत बहुतायत से पाए जाते है। लोग खामखां भूतों से डरते है। भूत कभी किसी को डरा ही नहीं सकता क्‍योंकि वह खुद डरा हुआ होता है। यदि डरा हुआ नहीं होता तो क्‍या यूं छिप कर घूमता। हमारे यहां जो लोग दिन रात काम में लगे रहते है उन्‍हें काम का भूत कहते है। देखो यार फलाना चन्‍द तो अपने काम में भूत की तरह लगा रहता है। वहीं दूसरी ओर भूत भगाने वाले भी हमारे यहीं पाए जाते है। भोपे से लेकर ताबीज बनाने वाले तक लेकिन बहुत ही कम लोगों को पता हे कि मार के आगे सारे भूत भाग जाते है। अब देखों ना जैसे जैसे फरवरी खत्‍म होने को होती है एक नए प्रकार का भूत आकार लेना शुरु कर देता है। इस भूत का नाम है परीक्षा पिशाच। यह बहुत खतरनाक और सिट्टी पिट्टी घुम कर देने वाला भूत है। बहुधा छोटे बच्‍चों और किशोर वय पर इसका अधिक असर होता है लेकिन इस मौसम में तो कालेज में पढने वाले नौजवानों पर भी इसकी हवा का असर शुरु हो गया है। इस भूत के डर से अभिभावकों ने बच्‍चों को टीवी व खेलना बन्‍द करवा दिया है। जो समझदार बच्‍चे कालेज में पढते है उन्‍होंने भी घर से निकलना कम कर दिया है। सैर सपाटे, मौज मस्‍ती वाली जगहों पर इस भूत का प्रकोप बढ जाता है। इससे बचने के लिए नोट्स नाम के ताबीज बनवाए और लिए दिए जा रहे है। यह भूतों की एक अंशकालिक प्रजाति है। अप्रेल से मई के अन्‍त तक यह भूत भाग जाता है। परीक्षा होती ही विकट है भैये। हर कोई सामना नहीं कर सकता इसका। बचपन में जब हमारी परीक्षाएं आती थी तो खाना गले से उतरता ना था। सारी पिकनिक सैर सपाटा बन्‍द हो गए है। अब देखो ना गर्ल फ्रेंड- ब्‍वाय फ्रेंड के साथ चाय पकौडी के सारे कार्यक्रम भी स्‍थगित कर दिए गए है। मोबाइल का मैसेज पेक भी रिचार्ज नहीं हुआ है। साल भर पढाई नहीं की है इसलिए अब यह भूत तो सिर पर ही सवार है और पूछ रहा है बता क्‍या क्‍या लिख कर आएगा। वैसे भी परीक्षाएं हम हर रोज देते है। महंगाई से कैसे निपटेंगे और घर कैसे चलेगा, यह बडी परीक्षा हर आम आदमी के पास है। सिंलेंडरों की घटती बढती संख्‍या से चूल्‍हा कैसे जलेगा यह भी एक सवाल इसी परीक्षा का है। आतंकवादियों से निपटने के लिए सरकारें हर बार परीक्षा देती है। अब देखो ना कई सारे राज्‍यों में एक साथ नेताओं की परीक्षाएं आ रही है। अपने यहां भी आने वाली है। जो पास होगा वो विधानसभा पहुंचेगा। इसके बाद दिल्‍ली वाली परीक्षा भी है। गाहे बगाहे नोट्स जुगाडने और पढाई का सिलसिला नेताओं में भी शुरु हो गया है। अब वह दौर तो रहा नहीं कि पुस्‍तकालयों में जा कर हम बडी बडी किताबे लाकर पढे। अब तो पास बुक और वन वीक सीरिज का जमाना है। एक सप्‍ताह का तैयार हलवा खाओ और परीक्षा के भूत को भगाओ। स्‍कूल या कालेज के टाइम में यदि हमारे बस्‍तों में कोई पास बुक या कुंजी दिख जाती थी तो मास्‍टर की मार तय थी ऊपर से पूरी कक्षा के सामने तिरस्‍कार होता सो अलग। अब इन कुंजियों के प्रयोग से ना तो मार का डर है ना तिरस्‍कार का क्‍योंकि मास्‍टर जी तो खुद ही इसे लिख रहे है और कह भी रहे है जाओ भाई साल भर नहीं पढे तो कोई बात नहीं। जब जागो तभी सवेरा। कुंजियों को पढो ओर अपना भविष्‍य गढो।

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

धीरज धरें..... लेकिन कब तक ??


ब्‍लास्‍ट के बाद दिलसुख नगर का क्षतिग्रस्‍त बस स्‍टाप

-डा कुंजन आचार्य-

फिर धमाके। लाशें ही लाशें। सडकों पर खून। अस्‍पतालों में अफरा तफरी। जिनके परिजन घरों को नहीं लौटे ऐसे हैदराबादवासियों की बदहवासी। जिनके रिश्‍तेदार और परिजन वहां है उनकी चिन्‍ताएं। हर ओर शोक। मातम और मायूसी। हर बार देश के दुश्‍मन आते है, सारी व्‍यवस्‍थाओं को धता बताते है और हमरा चैन छीन ले जाते है। हम धीरज रखते है। रखते आए है। सवाल यही है कि आखिर कब तक। धैर्य की भी एक सीमा है। ब्‍लास्‍ट के बाद हर बार की तरह सरकारी अमला दौडता है। एनआईए, एसपीजी टीमें आती है। मन्‍त्री, सन्‍त्री पहुंचते है। दिलासा, जांच, मुआवजा और आंसू। हम हर बार की तरह लकीर पीटते है। कहते है धीरज धरो। मुश्किल घडी में धीरज जरुरी होता है लेकिन इन कनखजूरों का सफाया बेहद जरुरी है। इन जहरीले कीडों को मारना बेहद जरुरी है जो समाज और राष्‍ट्र को शान्ति से जीने नहीं देना चाहते। राष्‍ट्र की एकता और शान्ति के दुश्‍मनों को सबक सिखाना बहुत जरुरी है।

हमारे धैर्य को कहीं कायरता ना समझ लिया जाए। हम पर कहीं डरपोक होने का लेबल ना चस्‍पा हो जाए। पडौसी हमारे अमन से खौफ खाते है। वे इस अमन को हर कीमत पर ध्‍वस्‍त करना चाहते है। इसमे स्‍थानीय मिली भगत की भी कडाई से पडताल होनी चाहिए। कोई भी देश का दुश्‍मन स्‍थानीय मदद के बगैर हमारी नाक के नीचे ऐसा नहीं कर सकता। सरकार को सख्‍ती दिखानी होगी। हमे भी साहसी होना होगा। जागरुक होना होगा।

हैदराबाद एक नाम है। यह नाम किसी अन्‍य शहर का भी हो सकता है। आतंकी कहीं भी जा सकते है। बम प्‍लांट कर सकते है। हमे आस पास चौकस निगाह रखनी होगी। संदिग्‍धों की सूचनाएं प्रशासन तक पहुंचानी होगी। यह भी यदि हम कर लें तो पुलिस को भी आसानी होगी। बेचारी पुलिस और उसका सबसे नीचे का कांस्‍टेबल तो चोरियां, पाकेटमारी जैसी समस्‍याओं को रोकने में ही व्‍यस्‍त है। उसे अवकाश ही नहीं कि वह इस तरह की बडी नापाक हरकतों पर भी निगाह डाल सके। हमारे सुरक्षा तन्‍त्र को भी मुस्‍तैद बनाना होगा। सुरक्षाकर्मियों को भी चौकस और दुरस्‍त करना होगा। दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर हमे देश के लिए भी सोचना होगा। देश है तो हम है। मैंने हैदराबाद में छह साल टीवी पत्रकारिता की। दिलसुखनगर शहर का बाहरी हिस्‍सा है। उपनगर है। कल गुरुवार को जहां ब्‍लास्‍ट हुआ इस के ठीक पास वाली गली में मैं 2004 में करीब छह माह रहा। यह बाजार जो अति व्‍यस्‍त है इसमें मैंने घंटों गुजारे है। चित्र में जो बिखरा बस स्टाप दिख रहा है इसके नीचे खडे रह कर कई बार बस की प्रतीक्षा की है। इन सब के चित्र देख कर मैं बहुत विचलित और आहत महसूस कर रहा हूं। असहाय महसूस कर रहा हूं। हैदराबाद में अति व्‍यस्‍ततम कोठी इलाके में है गोकुल चाट भंडार। राजस्थानी संचालक है। लाजवाब चाट और बेहतरीन स्‍वाद। वहां रहते हुए हर रविार की शाम चाट खाने का नियम बन गया था। 2007 में एक रविवार को दोपहर बाद बहुत बरसात थी इसलिए चाट का कार्यक्रम निरस्‍त किया गया। कुछ देर बाद पता चला कि गोकुल चाट में बडा विस्‍फोट हुआ है। तब भी लाशें बिछ गई थी। गोकुल चाट की रक्‍तरंजित दिवारों को देख कर मैं दहल गया था। इसलिए नहीं कि यदि मैं वहां होता तो क्‍या होता बल्कि इसलिए कि हम कितने असहाय है। कोई भी कभी आता है और हमे सरेराह तमाचा मार कर चला जाता है। हम वाकई बहुत असहाय है। यहां एक घटना याद आ रही है। म्‍यूनिख ओलम्पिक में इजराइल के एक दर्जन खिलाडियों को आतंकियों ने मार डाला था। प्रतिक्रिया में इजराइल ने उन सभी आतंकियों को दुनिया के कोने कोने से चुन चुन कर मारा। अन्तिम आतंकी घटना के दस साल बाद उसी के देश में उसी के देश में इजराइली कमांडो द्वारा मारा गया। आतंकवाद के खिलाफ इजराइल का जज्‍बा लाजवाब है। हम किसी से तो कुछ सीखे। (फोटो सौजन्‍य- भास्‍कर डाट काम)

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

म्‍हारी भासा, म्‍हारो देस


-डा कुंजन आचार्य

आज विश्‍व मातृभाषा दिवस है। यानी जो भी लोग अपनी मातृभाषा से प्रेम करते है उनके लिए य‍ह दिन पवित्र है। सारे संसार में मातृभाषाओं को बहुत ही आदरणीय माना जाता है। भाषा को सम्‍मान और स्‍वाभिमान का प्रतीक समझा जाता है। भाषा ही वह माध्‍यम है जिसमें आपस में संवाद कायम करते है। एक दूसरे को जानते समझते है। अंग्रेजी अंतरराष्‍ट्रीय भाषा है जो सबको जोडती है लेकिन उसकी कहानी हमारे रगों में जब से गौरव बन कर बहने लगी तभी से हमने अपनी मायड भाषा को बिसरा दिया। मायड भाषा मतलब राजस्‍थानी। देश की हर भाषा के लोग अपनी भाषा को बेहद संजीदगी से लेते है। उसको सम्‍मान का दर्जा दिलाने के लिए पूरी ताकत लगा देते है लेकिन हम आज भी राजस्‍थानी को पूरे मनोयोग से सम्‍मान नहीं दे पाए है। इतने आन्‍दोलनों के बावजूद राजस्‍थानी को संवैधानिक मान्‍यता तक नहीं मिल पाई। तर्क कुतर्क इतने है कि सिर चकरा जाए। कोई कहता है राजस्‍थानी में इतनी बोलियां है कि उसको समग्र कैसे करेंगे। मारवाडी, वागडी, हाडौती, ढूंढाडी, मेवाती,शेखावाटी आदि से मिल कर बनती है राजस्‍थानी। इन सबको समझने और बोलने में मुझे तो कभी कोई दिक्‍कत नहीं हुई। किसी और को फिर कैसे दिक्‍कत हो सकती है। सबसे पहले तो मायड भाषा को सरकारी मान्‍यता मिले इस बात का सक्रिय और समन्वित प्रयास किया जाना चाहिए। इसका क्‍या रुप होगा यह तो सभी बैठ कर तय कर ही लेंगे।
मनोविज्ञान को पढते समय एक बात पर मैने गौर किया कि कितना भी पढा लिखा आदमी क्‍यों ना हो गुस्‍से की पराकाष्‍ठा और उत्‍तेजना में वह गाली अपनी मातृभाषा में ही देता है। मतलब सोचने की प्रक्रिया ओर चिन्‍तन का आरम्भिक बिन्‍दु मातृभाषा से ही शुरु होता है। आजादी के बाद भाषा के नाम पर खूब हिंसा तक हो गई। दक्षिण वाले अपनी भाषाओं को छोडना नहीं चाह रहे थे। वे आज भी डटे है। दक्षिण भारत में मैंने छह साल बिताए। प्रारम्भिक सालों में दुकानों के साइन बोर्ड पढने में बडा कष्‍ट होता था। सब के सब तेलगु, कन्‍नड और तमिल में होते थे। तब मैं सोचता था कि मेरे जैसे लोगों के लिए क्‍या ये साइन बोर्ड दो भाषाओं में नहीं हो सकते। दूसरी अंग्रेजी हो ताकि सब लोग समझ सके, लेकिन मातृभाषा से प्रेम दक्षिण भारत में सिर चढ कर बोलता है। गुजरात और महाराष्‍ट्र में भी यही हाल है। बस हम ही पीछे है। विदेशों में अंग्रेजी के बिना काम नहीं चलता लेकिन बहुत ही कम लोगों को पता है कि चीन, जापान और रुस में सरकारी और कामकाज की भाषा उनकी अपनी भाषाएं है। लोगों को अंग्रेजी ना तो बोलना आता है ना लिखना। इसके बावजूद जापान और चीन के उत्‍पाद पूरे विश्‍व में धडल्‍ले से चल रहे और बिक रहे है। चीन को अब जाकर कुछ इल्‍म हुआ तो अंग्रेजी सीखने सिखाने का दौर शुरु हुआ। इतना गर्व है इन लोगों को अपनी भाषा पर। हमारे बच्‍चे चाहे अंग्रेजी माध्‍यम में पढे लेकिन हम कोशिश करें कि बच्‍चें से घर में मेवाडी में बात करे ताकि उन्‍हें अपनी भाषा का ज्ञान रहे। अधिकांश घरों में नई पीढी के लोग हिन्‍दी बोलते है। कुछ दिखावे के लिए अंग्रेजी में गिटर पिटर करते है। जो मजा मेवाडी में बात करने का है वह और किसी भाषा में कहां। कमसे कम आज के दिन हम यह संकल्‍प करें कि राजस्‍थानी को मान्‍यता दिलाने के लिए संघर्ष में अपनी भी आहुति दे। भाषा को सम्‍मान दे और इस पर गर्व करें।

टेम्पो चलाने का सुख


-डा कुंजन आचार्य-

यदि आप कार चलाते है। जीप चलाते है। बस चलाते है या चाहे स्कूटर, बाइक या साइकिल चलाते है लेकिन जो सुख टेम्पो चलाने का है वो इन सब वाहनों को चलाने में नसीब नहीं है। यह वह सुख है जिसकी कीमत वही समझ सकता है जो इसे चलाता है। बडे टेम्पो जिन्हें हम आम वाहन चालक 12 सीटर कहते है एक अद्भुत किस्म का यात्रा वाहन है। इस वाहन को चलाते हुए वाहन चालक तमाम तरह के मोह माया और बन्धनों से ऊपर उठ जाता है। हो सकता है आप मेरी बात को मजाक समझ रहे हो लेकिन मैं जो बात कहने जा रहा हूं वह बात शायद प्राचीन ग्रन्थों में भी उपलब्ध ना हो क्योंकि टेम्पो चालक जैसी महान शख्सियत के बारे में कभी किसी ने कल्पंना भी नहीं की होगी। यदि मेरी बात पर यकीन ना हो तो स्वयं देखिए। हाथ कंगन को आरसी क्या। यहां आरसी से मतलब टेम्पो की आरसी से है। जब हाथ में टेम्पो चलाने का कंगन हो तो उसे किसी आरसी वारसी की जरुरत नही पडती। तब चालक उदयपुर की सडक पर ऐसे टेम्पो चलाता है जैसे अगस्ता लैंड हेलिकोप्टर। ना तो उन्हें कोई रोक सकता है ना कोई टोक (ठोक) सकता है। क्या दिल्ली गेट ओर क्या सूरजपोल। क्या ठोकर चौराहा और क्या उदियापोल हर ओर इन्हीं का साम्राज्य‍ है। पते की बात तो यह है कि पूरे शहर के ट्रेफिक को अस्त व्यस्त करने का इन्हें लाइसेन्स प्राप्त है। सवारी रुपी प्रभु के दर्शन होते ही टेम्पो चालक को फिर किसी की परवाह नहीं रहती, वह बीच सडक में टेम्पो रोक कर उस सवारी को राजकीय सम्मान से स्थान देता है। इस बीच सडक पर पीछे कोई आ रहा है या उससे ट्रेफिक रुक गया है इस तरह की तुच्छ बातों की परवाह टेम्पो चालक अपनी शान के खिलाफ समझता है। चौराहों पर एक के पीछे एक टेम्पो इस तरह कतारबद्ध होकर सवारी के लिए खडे हो जाते है जैसे टेम्पों चालकों की रैली हो रही हो। इस कतार के बीच से कुछ टेम्पो बीच सडक में खडे हो जाते है। बेचारे दूसरे वाहन चालक तो इन सबके सामने नतमस्तक हो कर बमुश्किल रास्ता बना कर निकल पाते है। इस पूरी (अ) व्यावस्था के दौरान आप यह ना समझे कि ट्रेफिक पुलिस रुपी तारनहार कुछ भी नहीं करते। उन्हें कृपया ना कोसें। वे तो बेचारे शकल देख कर इक्का दुक्का निरीह किस्म के बाइक सवारों को रोकते है और चालान बनाते रहते है। अव्व्ल तो उन्हें तो चालान बनाने से फुर्सत ही नहीं मिलती, और यदि फुर्सत मिल भी जाए तो उनकी इतनी हिम्मत नहीं कि टेम्पो चालक रुपी ताकतवर प्राणी को कुछ कह दे। एमबी कालेज के सामने कुम्हारो का भट्टा तिराहा, मुल्ला तलाई चौराहा, फतहपुरा चौराहा, सेवाश्रम तिराहा आदि ऐसे स्था‍न है जहां टेम्पो चालक अपनी स्वतन्त्रता से ट्रेफिक व्यवस्था को अंगूठा दिखते दिख जाएंगे। क्षमता से अधिक सवारियां भरना, काला काला धूंआ छोडते हुए शहर को हाई कार्बन सिटी बनाना, व्यवस्था तोडने पर कोई टोक दे तो लडने मारने पर उतारु हो जाना यह सब टेम्पो चालकों की अतिरिक्ति योग्यताएं है। यह सुख होंडा सिटी और मर्सडीज चलाने में नहीं है। उसको चलाते समय तो आप को थोडा डिसेन्ट बनना होता है। अब सिटी बसें तो बेचारी सवीना के एक मैदान में पडी धूल खा रही है, उन्हें चलाने की ना तो सरकारी इच्छा शक्ति है ना रुचि। शहर की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था इन्ही टेम्पो चालक देवदूतों के हाथ में है। इन्हें हम सब को मिल कर प्रणाम करना चाहिए।