रविवार, 24 मार्च 2013
हमारा तो हर रोज अर्थ आवर
डा कुंजन आचार्य
धरती को बचाने के लिए कल एक घंटे के लिए लोगों ने बत्तियां बुझाई। यह उपक्रम धरती का प्रदूषण कम करने, कार्बन का उतसर्जन कम करने और पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए किया जाता है। कुछ वर्षों से लगातार हो रहा है। अर्थ अवार मनाने के लिए सभी ने रुचि दिखाइ्र लेकिन मैंने नहीं दिखाई। अब आप सोचेंगे अजीब आदमी है धरती के भले की चिन्ता नहीं है इसे। वाकई मैं भी कुछ ऐसा ही मानता हूं। जिनके घरों में 24 घंटे में से एक घंटे ही बिजली आती हो तो बेचारा वो क्या अर्थ आवर मनाएगा। उपवास वे लोग करते है जिनका पेट भरा होता है ताकि उनका हाजमा ठीक रह सके। बेचारा गरीब क्या उपवास करेगा। उस का तो हर रोज उपवास ही होता है। आजादी के इतने साल बाद भी हमारे गांवों की स्थिति बिजली और पानी के मामले में नौ दिन चले अढाई कोस की तरह है। मेरे गांव की हालत तो यह है कि जब इच्छा हो जाए तो बिजली आ जाए ना हो तो ना आए। अब भला इस तरह की स्थिति में जीने वालों को क्या पता कि अर्थ आवर किस चिडिया का नाम है। मैंने चम्पकलाल को अर्थआवर के बारे में बताया और कहा कि एक घंटा बिजली बन्द रखना है तो उसने कहा कि यह उन विदेशियों के लिए हे जो पर्यावरण के लिए खुद बहुत चिन्तित रहते है। हमारे यहां तो हमारी तरफ की चिन्ता सरकार ही कर लेती है और हमारी तरफ की कटौती खुद ही कर लेती है।
वैसे हम लोग ना बहुत संतोषी है। कम में भी खुश रह लेते है। जितना मिलता है उतना खाते है। अब हम कोई नेता और पुलिस अफसर तो हे नहीं कि बंधी बांध कर हफ्ता वसूली करते रहे। हम तो जितना मिल जाता हे उसी को प्रभु का प्रसाद समझ लेते है। जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमन्त्री बने तब अन्न की कमी को पूरा करने के लिए उन्होंने देशवासियों से कहा था कि सब एक दिन का उपवास करें। ऐसा हुआ भी और बहुत प्रभावी भी रहा। अब ना तो वैसे नेता रहे ना वैसे अभियान। जो जनजागरुकता के नाम पर होता है उसमें बजट और खाने खिलाने का खेल ज्यादा होता है। हमारे यहां के लोग अर्थ आवर को अर्थ मतलब धरती ना समझ कर अर्थ यानी धन समझेंगे। यानी कि एक घंटे में जितना कमा सको कमा लो, बाद में हो सकता है कमाने का आफर निकल ही जाए।
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