सोमवार, 8 मार्च 2010

आईना और अकेलापन

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आईने में प्रतिरूप
लुभा नहीं पाया मुझे
अकेला खड़ा आईना
बन नहीं सका मेरा मित्र
फिर भी रोज ताकता हूं
उसमें स्वयं को
अकेलेपन की व्यथा
शायद कभी
इसके चटकने के साथ ही
सार्वजनिक हो जाएगी
क्योंकि
टूटे कांच के हर हिस्से पर
मैं अलग-अलग कोणों से
बिखर जाऊंगा हज़ार चेहरों में
हो सकता है यह
सत्य ही हो
फिर भी
आईने के टूट जाने से
मैं
फिर अकेला हो जाऊंगा

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