बुधवार, 31 मार्च 2010

घुड़सवार

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चौराहे-दर-चौराहे
गुजरते गुजरते
महसूस होता है कभी
कि अब उग आई है समझ
कि कब कहा और कैसे
मील के पत्थरों से रूबरू होना है?
सोचने और करने तक के
फासले की दूरी
बहुत सोच के बाद भी नहीं मिट पाई
समझ कभी हैरान
कभी परेशान
और कभी खुद पर खीझती
कोसती है सोच को।
सोचती है
सूचियो में बंधे लक्ष्यों को
जरूरत है
तीक्ष्ण ऊर्जा
एवं पैने प्रयासों की
परतु हर भोर के साथ
उत्साह की बिखरती रश्मियां
वह समेट ही नहीं पाता।
बस चलता है
और चलता रहता है।
इस विश्वास के साथ
कि कुछ रश्मियां
करती रहेंगी प्रकाशवान
उसके मार्ग को
कभी बेपरवाह
हर क्षण, हर वजूद से
तो कभी
ढेरों चिंताओं का
और डर के दुष्चक्र में पिसता
कच्ची उम्र का वह घुड़सवार
खुद का बहुत अच्छा
विश्लेषक होने के बावजूद
खुद को कभी नहीं समझ पाया।
लगाम को पकड़ना
और अश्व से खेलने का शौक
कब षड़यंत्रों का हिस्सा बन जाएगा
इन सब से अनभिज्ञ
बिल्कुल बेखबर था वह।
हर तरफ से लापरवाह
घुड़सवार दौड़े जा रहा है
चौराहा-दर-चौराहा।
कहीं गरम, झुलसाती हवाएं
कहीं शीतल बयार
कहीं धुंआ
तो कहीं ठिठुरन ।
सूरज ने भी असहमति जता दी
कि उसके नाम की कोई लकीर
उसके हाथ में बने।
शनि की वक्रदृष्टि
कभी उसके सपनों को
झुलसा देती है
चौराहों पर हजारों चेहरों से
मिलते बिछुड़ते
घुड़सवार कहीं खो जाता है।
वह भूल जाता है
कि उसे कहां जाना है ?
अपरिपक्वता उसकी सच्चाई है
परन्तु औपचारिक गम्भीरता
और उससे जुड़े दायित्वों को ढोता
घुड़सवार कभी महसूस करता है
खुद को हताश
निराश और टूटा हुआ।
वेदना के क्षण
उसके अन्तस को कचोट जाते हैं
पीड़ा की अनुभूति
शौक का व्यवसाय बनना देखती है
और देखती है
कि विकल्पों के लिए छोड़े गये
रिक्त स्थानों में
जम रही है महीन मिट्टी की परतें।
घुड़सवार ठड़ लगाता है
तेज, बहुत तेज
कभी बदहवास सा
कहीं गिर पड़ता है
फिर लड़खड़ा कर
एकदम उठता है
और चलता है।
गुजरता जाता है
चौराहा-दर-चौराहा
पर उसे नहीं पता
कि किधर है उसका गंतव्य ?
कौन सी है मंज़िल?
और उसे कहां जाना है.. ?
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3 टिप्‍पणियां:

  1. bhai kunjan ji,
    jai rajasthani
    jai rajasthan !
    aapro blog gokhyo,bado e santro ar jordar lagyo!
    aapri kavitavan e banchi,bho!t day aai sanchi.
    aap to luntha kavi ho. main to itti ni souchi hi.
    santre blog ar kavitavan saru badhayje !
    ab kin rajasthani me e aawan dyo sa

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  2. भाई कुंजन जी आचार्य,
    नमस्कार!
    आज ही आपके ब्लाग का पता चला।इतने दिन की अनभिज्ञता को कौस रहा हूं।अब तक तो मैँ आपकी इक्का दुक्का कविताएं ही इधर उधर पढ़ता रहा हूं।यहां तो पूरा खजाना ही हाथ लग गया।कुछ कविताएं पढ़ ली हैँ और बाकी भी पढ़ लूंगा।आपकी कविताएं प्रभाव छोड़ती हैँ।बधाई !
    अब तक मैँ आपके पत्रकार को ज्यादा जानता था।अब तो आपका कवि भी मेरे सामने है।आपके कवि से रू-ब-रू हो कर बहुत आनंद आया।अपने कवि को जतन से ज़िन्दा रखना।मेरे साथ पत्रकारिता के दौर मेँ बहुत से लौग कविता लिखते थे मगर वे अपना कवि नहीँ बचा सके।आज के ग्लोबलाइजेशन व अंधी व्यावसायिकता के दौर मेँ तो यह सुरक्षा व संरक्षण और भी कठिन है।जिद्द करो और निष्ठा से लगे रहो।

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  3. टटोलते रहे तकियों के नीचे सोये सपनो को..
    शिक़ायत उसे बज़्म में आने से रही होगी..
    सालते रहे मर्ज़ डकैत नज़रों के पीछे खड़े गुनाहों के..
    कसावट उन्हें रिश्ते की ज़ंजीरो में मिली होगी..
    "shandar hai sir"

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