सोमवार, 22 मार्च 2010

तारीख

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जब पलटता हूं
कलैण्डर का हर एक पन्ना
हर तीस / इकतीस को
फिर भी
इस कम्प्यूटराइज््ड दिमाग को
मतलब समझ नहीं आता
कि तारीख क्या है ?
रोज उग आता है सूरज
पूरब से
बिना किसी से पूछे
आज्ञा लिये
और डूब जाता है
अपनी नित्य प्रति की यात्रा के बाद।
अंधेरा भी आ जाता है
ठसा ही होता है प्रतिदिन
रोजाना बदली जाती है तारीखें
पलट जाते हैं वार
और कभी-कभी तो संज्ञाएं और आदमी भी।
मगर फिर भी मैं अपनी जिज्ञासा लिए
देखता हूं बाहर की चहल-पहल को।
जल्दी है सबको
कहीं पहुंचने की (कहां ?)
भागम भाग / रेलमपेल
जिसका अर्थ मैं गले नहीं उतार पाया
कोई कहता है कि तारीख समय है
वही समय
जिसका दूसरा नाम घड़ी है
परख लिया उस
सेल और कांटे लगे डिब्बे को भी
जिसके वृत्त में बारह तक गिनती लिखी है
यह भी तो वैसी ही है
जैसा सूरज है
उसके छोटे-बड़े
धातु के कांटे भी तो
घूमते रहते हैं पल-प्रतिपल
और फिर उसी गोले में लगाते हैं चक्कर
आखिर क्या है अर्थ इसका
कहां हो रही है प्रगति ?
घूम अफिर कर जहां के तहां
आंख पर पट्टी बांधे
कोल्हू के बैल नहीं तो क्या है ये ?
सर्वत्र मनीषी / बुद्धिवादी
जिसे समय कहते हैं
उसका अर्थ आज तक
समझ नहीं आया
पहली तारीख आगे की
तीस तारीखों को रौंद कर
महीने का पन्ना पलटवा देती है
और ये जनवरी
सितम्बर-अक्टूबर को लांघते हुए
दिसम्बर तक तो
कलैंण्डर को रद्दी बना देता है
फिर चलता है वही क्रम
जो अब तक चला था
चलता रहेगा
पर मैं नहीं समझ पाया कि आखिर
तारीख क्या है ?

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