सोमवार, 8 मार्च 2010

अब कविता

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हवा में उड़ती
कोरी कल्पना
नहीं रह गई है अब कविता
धरती से जुड़ी
अनुभवों से महकी
और आदमी के
वजूद के बराबर
आ खड़ी है कविता।
कविता महज शब्दों का भ्रमजाल नहीं
और न ही है
कल्पनालोक की स्वप्नयात्रा।
कविता अब फुदकती नहीं है
फूलों के इर्द-गिर्द भंवरों की तरह
कविता चिरौरी नहीं करती
न गाती है दरबारी गान
कविता दोस्त है आदमी की
इसीलिए
महंगाई के चौराहे पर
आटा और दाल खरीदते
आदमी के साथ खड़ी है कविता।
भागती-दौड़ती ज़िन्दगी को
बहुत निकटता से छू कर
देखती है कविता।
दो बड़े विपरीत विचारों के बीच
कविता खड़ी है
अन्तर्द्वन्द्व के हर दोराहे पर
साथ है कविता।
ज़िन्दगी की जेब में उतरकर
चिल्लर टटोलती है
ऊपर नीचे करती है संकटों के सिक्के
जो हर वक्त खनकते हैं
आदमी के आगे-पीछे
आदमी को ठेठ अंदर से खींचकर
हल्का कर देती है कविता।
दोस्त, सहचरी
मार्गदर्शक सब कुछ है
उत्साहों का बिगुल
थमाती रहती है
विश्वास जगाती रहती है।
जब संचरित होती है कविता
धमनियों में हृदय तक
तब कविता, व्यवस्था की
बेरी हो जाती है
और तब कविता
रणभेरी हो जाती है।
कविता मन की सहचरी है
मन की तह से उठती है
मैं कविता को
मन की आंखों से पढ़ना चाहता हूं
अपने मन के हाथों से
उसे छूना चाहता हूं
कविता चिरंतन है
कविता कभी नहीं मरेगी।

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