बुधवार, 31 मार्च 2010

मन के भीतर का मन

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हवा का एक झोंका
मुझे छू कर
हौले से यूं गुनगुना देगा
मुझे पता भी न था।
स्वच्छ नीले और विशाल गगन के
विस्तृत पटल पर
वैसे तो हवाओं को
लहराते, इठलाते और मुस्कुराते हुए
कई-कई बार देखा है।
नदी की प्रवाहमान जलराशि को
छेड़कर दरख्तों से लिपट जाना
फूलों को गुदगुदा कर
अस्ताचल पर क्षितिज में विलीन हो जाना
कभी चंदा के साथ
घंटों खिलखिलाना
और अचानक स्मृति में तब्दील हो
क्षण-क्षण का अवसाद छोड़ जाना
हवाओं की फितरत रही है।
कई मन भावन रंगों से सजी
और भांति-भांति की खुशबूओं में लिपटी
हवाओं की कई प्रतिकृतियों को
फूलों के साथ
घंटों बतियाते देखा है मैंने।
जीवन के हर पहलू से जुड़ी
हवाओं के इन करतबों का
दर्शक भर मैं
इक झौंके के मृदु स्पर्श से
जाने कब गुनगुना दिया
खुद मुझे भी पता न चला
हवा ने रची शब्दों की सृष्टि
शब्द और शब्दों में बंधे प्रतीक
और प्रतीकों में लिपटी कविताएं।
मैं समझ भी नहीं पाया था
कि बादल, सागर व लहर के संवादों का साक्षी
हवा का वह झोंका
जाने कब
मुझसे लिखवा गया एक कविता।
हालांकि बिल्कुल मेरी ही तरह
मेरी कविता भी कुछ नहीं कह पाती
लेकिन फिर भी मैं यह देख अवाक हूं
कि हवा के स्नेहमयी स्पर्श ने
कविता से बंधे शब्दों के
अविच्छिन्न मौन के भीतर
संचरित कर दिया है
एक स्पन्दन।
कविताओं से जुड़ा मन का कोई कोना
हथेलियों से आंखों को बन्द कर
चाहता है हवा की गोद में
सिर छुपाना।
मन के भीतर का कोई एक मन
हवा के भीतर छुपे झोंके को
जी लेना चाहता है।


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