बुधवार, 31 मार्च 2010

तुम्हारी आंखें

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तुम्हारी आंखों का क्रम
आंखों से शुरू होता है
और आंखों पर ही खत्म हो जाता है।
वैसे आंखें बहुत कुछ कहती हैं
परन्तु तुम्हारी आंखें
सब कुछ कह जाती हैं।
सब कुछ कह जाना
बहुत मामूली नहीं होता
कई तो जुबान से ही
कुछ नहीं कह पाते
यदि वे कुछ कहते भी हैं
तो उनका कहना
कई-कई अर्थ लिए होता है ।
उनकी बातें
शब्दों के चुनाव से शुरू होती है
और अर्थों के उलझाव तक जाती है
उनके सामाजिक होने का स्वांग
मुझे सदैव विचलित करता है।
पर तुम्हारी आंखें
मौन रह कर भी
मन की बात कहती हैं
साथ ही मन की इच्छा को भी पढ़ लेती हैं।
तुम्हारी बड़ी आंखें
आशाओं का बहुत बड़ा संसार है
इसमें छिपी चमक
मेरे मन को
प्रफुल्लित कर देती है
तुम्हारी आंखें
मेरे लिए बातों का माध्यम
और मेरे शब्दों के लिए
ईर्ष्या का विषय है।

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