सोमवार, 22 मार्च 2010

तुम

****************************
हे महामानव
क्यों हो मौन
आखिर क्यों ?
अपनी विफलताओं
चिरंतन संस्कृति
या अतीत की स्मृतियों का दर्द
कब तक समेटे रहोगे
तुम्हारी चुप्पी
अब स्वीकृति नहीं समझ पाएगी
तुम कायर कहलाओगे
लौटा दो उस अभिशप्त वेदना को
खोखली चिन्ता को
भूतहे डर को
जो तुममें समाया है
आखिर तुम समर्थ हो।
कस लो मुट्ठियां
कदम बढ़ाओ / तुम सबके हो
सब तुम्हारा है ।

****************************

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें