बुधवार, 31 मार्च 2010

आदमी

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तमाम संभावनाओं
और आशंकाओं के बीच
आसमां से ऊंचा
उठ गया है आदमी।
आदमी
यानी कि जिन्दा हकीकत
भावनाओं का पुलिंदा
संवेदनाओं
विचारों
और कल्पनाओं की आकाश छूती
श्रृंखलाओं का कारीगर ।
धीरे-धीरे
गढ़ता रहता है
पिन से प्लेन तक
टीन से ट्रेन तक
और क्रमशः बुनता रहता है
महीन-महीन धागों वाली
सम्बन्धों की झालरें।
झालरों में चमकीले प्रशंसा के हीरे
हर दम चमकते है।
आदमी
हर दम करता है कोशिशें
दहकते आत्मविश्वास के साथ
ऊपर चढ़ने की
कभी-कभी
बिना सहारे के
बहुत ऊपर
उठ जाता है आदमी।
नेम प्लेटों की चमक से चमकता आदमी
गाड़ियों के शीशों में दमकता आदमी
हर गली के हर मंच पर
पूरे जोश से चहकता आदमी
कभी वातानुकूलित महक
और नरम, रेशम, मुलायम बिस्तर पर
दिन भर की थकान उतारता है
तो कभी कम्बल के सहारे
सोते हुए कुत्तों के किनारे
ठिठुरते अदिसम्बर में
दुबका हुआ आदमी।
समस्त उदारीकरण
व खुलेपन के बावजूद
चौराहों, गलियों, सड़कों
और फुटपाथों पर
पूरी दयनीयता के साथ
दया की आशा में
अपनी कमर को
झुका देता है
फैला देता है हाथ / क्योंकि
कुछ पाने के लिए
कुछ भी कर सकता है आदमी।
आदमी हत्या कर सकता है
अकिसी की भी, कभी भी
आदमी मार सकता है
अपने प्रेम
भावनाओं
और उसूलों को
अपनी सद्भावनाओं को
कहीं भी, कभी भी।
आदमी अपनी कल्पनाओं को
मूर्तता देता है
रात-रात भर जग कर ।
आदमी रोता भी है
अपनी विफलताओं पर
रात रात भर ।
कभी अकेला ही
एकान्त में कोसता है
खुद को ।
आदमी बदल रहा है निरन्तर
घड़ी की सुईयों के साथ
आदमी
आदमीयत की आत्मीयता को
संवेदनहीनता के साथ पढ़ता जा रहा है
निरन्तर
आगे बढ़ता जा रहा है
क्षण-प्रतिक्षण
खुद से बहुत दूर
निकल रहा है आदमी।


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