सोमवार, 22 मार्च 2010

मैं

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प्रतिकूलताओं
चपलताओं
और समय की गति के साथ
मैं
कब सहज हो पाऊंगा ?
ऊंची दीवारों
टूटते सहारों
रेत, बर्फ, घुटन और धुंआ
मैं
कब समझ पाऊंगा ?
शून्य क्षितिज के पार
सूरज के द्वार
पलाश के फूलों तक
मैं
कब पहुंच पाऊंगा ?
सूरजमुखी की खुशबू
रेत पर कचनार
तुम्हारा प्यार
मैं
कब पा पाऊंगा ?

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