बुधवार, 31 मार्च 2010

प्रेम कविता

****************************
शब्द उभरा
वाक्य बना
और यूं बन गयी कविता
कविता शब्दों के साथ बोली
हंसी
मुस्कुराई
और गुनगुनाई
शब्द बार-बार उभरे
होते रहे स्फुरित
और लिखी गयी कविताएं
जो हर बार छूट जाता है
रह जाता है कहीं
अनकहा / मूक
वह सब कुछ
प्रायः समाता रहा कविता में।
कविता की शाश्वतता
चमकती है
बिल्ली की बिल्लौरी आंखों की तरह
कविता की आत्मीयता
शब्द के प्रति झलकती रही।
इस आत्मीयता के साथ
जुड़ी थी शिकायतें और झगड़े।
कविता सदैव कहती रही
अभिव्यक्त करती रही स्वयं को
पर शब्द रहा
बिल्कुल चुप
शब्द प्रतीक गढ़ता
और उन प्रतीकों को चुरा लेती कविता
शब्द नितान्त अकेला है
उसके अकेलेपन की व्यथा
रह-रह कर फूट पड़ती है बाहर
कविता उसके एकान्त को
भरने का उपक्रम करती है ।
शब्द अभिभूत है
इस स्नेहिल उपक्रम से
कविता जानते हुए भी अनजान है
और शब्द चुप रहकर भी कह देता है
कि वह उससे प्रेम करता है।
परम्पराओं से बंधा शब्द नहीं जानता प्रेम की परिभाषा
पर फिर भी
वह गढ़ता है स्वयं के नित ने रूप
आत्मीय रूप
स्नेहिल रूप
और ढल जाता है एक नई कविता में
प्रेम कविता में।


****************************

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें