सोमवार, 8 मार्च 2010

अनकहे शब्द

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फिर एक बार
मुझे
अपना अति आत्मविश्वास
असफल लगा
जाने क्यों
मैं अपनी भावनाएं और
व्यथाएं
अन्तर्द्वन्द्व
व्यक्त नहीं कर पाया
वह निर्विकार सी
मासूमियत की छतरी ओढ़े
मुझे द्वन्द्व की बरसात में
भीगते हुए
देखती रही
एकटक
पर फिर भी मैं
कुछ भी नहीं कह पाया
शायद वह मेरे मौन को ही
मेरा भाषण समझ गयी
वह तो
सब कुछ सुनने
और जानने को उत्सुक थी।
आज तक
किसी भी खाली पृष्ठ पर मैं नहीं लिख सका
कि मैं उन शब्दों की सर्जना क्यों नहीं कर पाया
वह
जाने क्यों यूं ही चली गयी
सब कुछ समझ गयी हो
फिर मिला
जब कभी उससे
तो ज़रूर पूछूंगा
कि
क्या समझ लिया था तुमने
अनकहे
शब्दों को ?

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