बुधवार, 10 मार्च 2010

मेरी मंज़िल

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शायद
अब मैं बन नहीं पाऊंगा
डॉक्टर / इंजीनियर।
प्रदर्शन कर नहीं पाऊंगा
घर वालों की आशा के अनुरूप
मुझे पाना नहीं है
कोई बड़ा पद
या बड़ा ओहदा
मैं तो वह चाहता हूं
जो शायद तुम नहीं चाहते होंगे
मुझे अभी सीखना है
जीने का तरीका
व्यवहार करने का सलीका
और मुस्कुराने का ढंग
खोजना है अभी मुझे
मेरी कल्पनाओं की मूर्तता
पाना है मुझे अभी
सोचने की ऊंचाई
और विचारों की गहराई
आत्मसात करना चाहता हूं
संस्कारों की सजीवता
और परम्पराओं की ताज़गी
अगर मैं सोच लूं
यही कि मंजिल मेरी भी है वही
जो उसकी, इसकी या तुम्हारी है
तो क्या अन्तर रह जाएगा
उसकी और मेरी संवेदनाओं में।
दुनिया की हर खुशी को
अपनी बनाना चाहता हूं
मैं मुस्कुराना और
खुलकर
खिलखिलाना चाहता हूं
ठसे नहीं जैसे.....।
मैं अपने जीवने के
हर पल को
हर क्षण को
सजीवता से जीना चाहता हूं।
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