शनिवार, 13 मार्च 2010

धूप

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धूप अब खिसकने लगी है
हवा के झोंको के साथ
आंगन की तुलसी तक ।
छांव रह-रह कर
सिर तक आती है
धूप बहुत जल्दबाज हो गयी है।
धूप
अब नहीं सुखाती है
दाल, धनिया और काचरी।
नहीं बताती है
समय की गति और त्यौहारों की सूचना।
धूप को अब नहीं सुहाता है
उसके साथ बैठ कर गन्ना चूसना
और लाल पके बेरों को खाकर
उसकी गुठलियां उछालना।
धूप बात नहीं करती अब
ना गर्माती है ठण्डाए बदन को
और ना ही दादा के नहाने की
बाल्टी में भरे पानी को
गर्म करती है।
मेरे घर का नक्शा
अब अर्ध्य देने जैसा नहीं रहा।
मैं अब खड़े होकर / पंजों के दम पर
ताकता हूं धूप को ।

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