सोमवार, 8 मार्च 2010

अपने होने का अहसास


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अपने ही शहर में
अपने होने का अहसास
नहीं कर पाता हूं
हर तरफ एक अजीब सी
अपरिचितता है
पड़ोसी को नहीं पहचानते हम
लोग एकान्तप्रिय हो गये हैं
अकेले में खो गये हैं
विज्ञान ने जितना जोड़ा
उतना ही तोड़ा है
अब हर चौराहे पर अजनबी चेहरे हैं
दिन भर की शोर भरी हवा में
सअहिष्णुता दब गयी है
लोग झपट पड़ते हैं एक दूसरे पर
जरा-जरा सी बात पर
अफराधों में बढ़ोतरी
और दरोगाओं की चांदी
एक साथ होती है
लोकतंत्र की इमारत में
राजनीति के गलियारे
खूब लम्बे, टेढ़े-मेढ़े
सीलन भरे और बदबूदार
जन-प्रतिनिधि
अब मन प्रतिनिधि
नहीं बन पा रहे हैं जनता के
क्षणिक अधिकारों से
जेबें भर गयीं हैं।
झोपड़िया भूखी हैं
सदन में विधेयक पारित होने से पूर्व
होता है हंगामा
कपड़े फटते हैं
शोर-शराबा / जूतम पैजार
टीवी पर सीधे प्रसारण की व्यवस्था है
अब प्रतीक्षा अगले चुनावों की है।
पांच साल का बच्चा
प्लेटफार्म पर आग्रह करता है
बाबूजी पॉलिश करवा लीजिए
सबसे बड़ी कचहरी
बच्चों के श्रम पर पाबंदी का
आदेश जारी करती है
मैं चमकते जूतों के साथ
पार करता हूं "हैवी ट्रैफिक"
और ढूंढता हूं अपने ही शहर में
अपने होने का अहसास।
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(इस रचना में प्रयुक्‍त छायाचित्र को अभिषेक-के- सिंह ने अपने कैमरे में कैद किया है )

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