बुधवार, 31 मार्च 2010

अबकी दिवाली

****************************
दीए की बाती
अब कभी समझ नहीं पाएगी
लोकतंत्र का अर्थ
जो राजनीति की पेचीदगियों में
उलझ गया है।
'राजनीति' एक ऐसा शब्द
जिसके हज़ार-हज़ार अर्थ हैं
हर अर्थ हर कोण से टेढ़ा है।
सत्ता सुंदरी का मोह
कुछ भी करवा सकता है
किसी भी हद तक ।
अख़बार पढ़ते बच्चे
पूछ रहे हैं
'घोटाले' क्या होते हैं ?
तीस हजारी से विज्ञान भवन तक
चक्कर लगाता लोकतंत्र
थक गया है।
लोकतांत्रिक जनता रोटी चाहती है
और वे 'चारा' खा रहे हैं।
मुम्बई में माइकल की मादकता पर
जनता मदमस्त हुई ।
बंगलौर में परीलोक से
अवतरित हुई
अधनगी विश्व सुंदरियां।
घूंघट से झांकती दिए की बाती
बता रही है कि तेल ख़त्म होने का अंदेशा
दिग्भ्रमित मतदाता,
त्रिशंकु सरकारें,
उपेक्षित जनता
शेयरों का उछाल
महंगाई की धमाल
लक्ष्मी की प्रतीक्षा
खाली थाली
कैसे मनेगी
अबकी दिवाली ?


****************************

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें