बुधवार, 31 मार्च 2010

एक टुकड़ा आसमान

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जीवन भर मर-खट कर
जुटता है कुछ पैसा
कटता है पेट
दबती हैं इच्छाएं
और भर पाती है
सम्भावनाओं की गुल्लक।
आदमी को चाहिए
एक टुकड़ा आसमान
अन्न उगाने को नहीं
घर बनाने के लिए।
अन्न उगाने के लिए
अब कोई नहीं खरीदता ज़मीन
किराए के छोटे से मकान में
टुकड़ा-टुकड़ा बंटता है आदमी
बंटती हैं खुशियां
निरन्तर बंटती जाती हैं योजनाएं।
सुनहरे कल को पाने में
आदमी की केश राशि
चांदी जैसी हो जाती है।
जमीन के टुकड़े पर
आदमी बनाता है मकान
अपने लिए नहीं
बेटे के लिए
आदमी का बेटा
आदमी से तेज होता है
सोचने में और करने में।
आदमी जीवन भर की कमाई से
खरीदता है एक टुकड़ा ज़मीन
बेटा
पाना चाहता है एक टुकड़ा आसमान
जिसमें समाई हैं
सम्भावनाएं और सर्जनाएं
बेटा जानता है
आसमान के लिए
उसकी गुल्लक बहुत छोटी है
और कुछ खाली भी
फिर भी वह
हरदम
सोते-जागते
लिखता है आसमान पाने की इच्छा।
एक टुकड़ा आसमान
कविता नहीं
एक विचार है
जिसमें मूर्तता पाने की छटपटाहट
बहुत कुछ करने की इच्छा है
कुछ नया बनाने का उत्साह है
एक टुकड़ा आसमान
बेटे के लिए
महज कल्पना नहीं है
इसमें समाई है
यथार्थता
कर्मशीलता
विचारों की सतत गति
और प्रयासों का पैनापन।
बेटे को विश्वास है
यह टुकड़ा एक दिन जरूर बनकर उभरेगा
एक सम्पूर्ण आसमान।

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