बुधवार, 31 मार्च 2010

मौन

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हर अवसर पर
बस यही सोच कर चुप रह लेता हूं
कि मेरे शब्द
शायद नहीं हो पाएंगे मुखर।
मैं भी देखता हूं एक स्वप्न
धवल चांदनी
और उसके चपल संवेगों में लिपटी
मदहोश कर देने वाली महक का
परंतु महक और उसका अंतरंग शिल्प
मेरी शाब्दिक अभिव्यक्ति की सीमा में
कभी नहीं बंध पाया।
मैने चाहा
बहुत चाहा
रूबरू हुआ उन सजीले शब्दों से
घंटों अकेले में
पर नियति ने
उन शब्दों को बांध दिया है
मेरे उस अहम के साथ
जो किसी कोने में दबा, छिपा है।
माहौल की गरमी पाते ही
उठ खडा होता है वह
अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ
उसकी विशाल संरचना
जबरन ढंक लेती है
मेरी कल्पना के सतरंग
संवेदनाओं की खुशबू
और मेरी आत्मीय अभिरूचि की जिजीविषा।
मेरे मन के भीतर छिपे
सैंकड़ों मन
अनिच्छा के बावजूद
दब जाते हैं उसके भार तले।
माहौल में ठण्डक पसरने के साथ ही
अहम का वजूद भी
अचानक घट जाता है
वह निढाल हो जाता है
गिर पड़ता है मन के बिल्कुल समीप।
मन कोमलांगी वजूद
कोसता है उसे
करता है मिन्नतें
और मागता है
कुछ स्नेहमयी सौगातें।
चंचल मन में बसी गम्भीर समझ
मेरे एकांत की हैरानी है
चटख चांदनी जब कभी छिटक पड़ती है
मेरे आंगन में
मैं उसे आश्चर्य का स्पर्श दे
निहारता हूं
और बस निहारता हूं।
मेरा स्निग्ध मौन
चांदनी के हर प्रतिरूप को खला है।
हमेशा ही
निढाल अहम के कुछ स्वेदकण
छू जाते हैं मानस को
और यही सोच कर चुप रह लेता हूं
कि नहीं दे पाऊंगा भावनाओं को
शब्दों की औपचारिक मुखरता
बस यही कारण रहा
कि चांद को प्रायः मेरे व
चांदनी के बीच
पसरा हुआ दिखा
एक निष्ठुर मौन...।


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