बुधवार, 31 मार्च 2010

मुट्ठी में बंद सपने

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हथेली के पसीने में
फिसलते हैं कभी
तो रुक-रुक कर थामता हूं
उझकने को होते हैं कभी
अंगुलियों की दरारों से तो
हाथों को ऊपर उठा कर
रोकता हूं
मुट्ठी में बंद सपनों को।
मुट्ठी में बंद सपने
जितने चमकीले होते हैं
उतने ही गतिशील भी
प्रयासों से जितने चमकते हैं ये
शिथिलता में उतने ही दुबले हो जाते हैं
कमज़ोर रक्त विहीन ।
चेहरे पर
उग आया तनाव
सपनों को चटकाने में
भागीदार बनता है
परेशानी में
सर से उपजी
कमर तक पहुंची खाज
कदमों को रोक देती है
कभी हवाएं तेज होती हैं, शीतयुक्त
तब सपने ठिठुर उठते हैं।
बहुत कुछ कहना चाहते हैं सपने
हौले से गुनगुनाना चाहते हैं सपने
सपने उड़ना चाहते हैं
तितलियों के मानिन्द
सपने दिखना चाहते हैं।
अब सपने
बहुत संवेदनशील हो गये हैं
ठेठ मन तक पहुंच रखते हैं ।
सपने खुलकर बोलना चाहते हैं इन दिनों
पर हवाएं सुनना नहीं चाहती उन्हें
अब सपनों को कुछ दिन
सचमुच धरना होगा धीरज।

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