सोमवार, 8 मार्च 2010

हथेली पर वसंत


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मैं गुनगुनाता हूं
तुम मुस्कुराओ
हथेली पर सरसों उगाना
अब आसान हो गया है
उषा की प्रथम रश्मि सी
तुम्हारी निश्छल मुस्कान
मन में दमक भर देती है
खिलखिलाकर हंसना
थकान, निराशा, चिन्ता
काफूर कर देता है
मैं एकदम उड़ने लगता हूं
पतंग की तरह गोते लगाता हूं हवा में
शेरपा और हिलेरी के पीछे भी
ज़रूर रही होगी कोई मुस्कान
मैं भी चढ़ना चाहता हूं
अब ऊंचे शिखरों पर
मैं गुनगुनाता हूं
तुम खिलखिलाओ
हथेली पर पीले फूलों का खिलना
अब शुरू हो गया है
काला चश्मा, नीली टोपी लगाए
बहुत गंभीरता से
बिना गुनगुनाए
आ रहा हूं तुम्हारे पास
तुम ज़ोर से लगाना ठहाके
मैं हरा हो जाऊंगा
"पामिस्ट्री" की किताबें रद्दी हो गई हैं
रेखाएं मिट गयी हैं
पर्वत मैदान हैं
हथेली पर उग आया है वसन्त
आओ हम वसन्तोत्सव मनाएं
और बन्द कर लें इस उत्सव को मुट्ठी में
फिर मैं गुनगुनाता हूं
तुम मुस्कुराओ
मुट्ठी से निकलेगा प्रफुल्लित
एक टुकड़ा वसन्त
और उतरेगा सूखी धरती पर।

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