बुधवार, 31 मार्च 2010

मेरा शहर

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मेरे शहर का व्यस्त चौराहा
चीखती हैं घबराती गलियां
ऊंची-ऊंची मीनारें
चिढ़ाती हैं मुझे
चौड़े विस्तृत कॉम्पलेक्स
करते हैं अट्टहास
कहीं चुभती हैं फांस
तेज गर्मी का कहर
सहता है मेरा शहर ।
धुंआ उगलती हैं अमिलें
पेड़ों पर ठुकी हैं कीलें
दूर-दूर तक
रेत के टीले ही टीले ।
हवा तपी-तपी खामोश है
पंखों की हवा में रोष है
कुएं, बावड़ियां, तालाब
और
सूखी सी नहर है
ये मेरा शहर है।
गुलाबों को हो गया है पीलिया
पानी रोगी हो गया है
हवा की गरमी में
सूरज ने माचिस जलाई है ।
लगता है
धरती की सूरज से सगाई है ।
प्यासा है मन
पर होंठ गीला है
मेह अवकाश पर
आसमान नीला है
सड़कें तवा हो गयी
लू जवां हो गयी
पर लोग....
फिर भी भाग रहे हैं
बदहवास
दिन का तीसरा पहर है
ये मेरा शहर है।



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