बुधवार, 31 मार्च 2010

गंतव्य

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मैंने कभी नहीं चाहा
कि बढ़ जाऊं आगे
चीर कर इस अंधेरे को
निर्वसन जिजीविषा की तलाश में।
गुजरता हूं
एक लम्बे और संकरे पुल से
नंगे पैर
तब लगता है
मेरे पदचिन्ह पुल की सड़क पर
गहराई से उतर गये हैं
और मैं उन्हें चाहकर भी
मिटा नहीं सकता
पुल के नीचे से बहती
जलराशि का आवेग
मेरे वैचारिक आवेग से
कई गुना तेज है
फिर भी....
चाहकर भी मै उसे
नहीं दे सकता आदेश
कि मेरे उन अमिट पद चिन्हों को
साफ कर दे
छोड़ आया हूं जो पीछे
किसी राही के लिये
जो झूठ से पराजित हो
सच का अस्तित्व
अपनी आंखों को दिखाना चाहता है ।
कभी-कभी तो मानस की संज्ञाएं
शतरंज के मोहरों सी
शताब्दियों से निरुत्तर
त्रिशंकु से लटके
मौत के सन्नाटे को पार कर
ज़िन्दगी की सच्चाई की
खोज में निकलती है ।
फिर भी
ठसा लगता है कि
मन के किसी अज्ञात खण्ड में
अदृश्य शंका और विषाद का निवास है
जाने कब
मुझे पीछे से आवाज देकर
रोक लगा कोई उद्वेग
और मांग लेगा कारण
पीछे छूटे हुए
पदचिन्हों का
जिसका उत्तर
निर्वसन जिजीविषा भी
नही दे पाएगी ।
मैं मूक खड़ा
ताकता ही रह जाऊंगा
शून्य में छिपे अपने गंतव्य को।



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