सोमवार, 22 मार्च 2010

शहर की सड़क

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शहर की व्यस्त सड़क पर
भ्रमण करते हुए
एक प्रबल अभिव्यक्ति
मुखर हो उठती है
आखिर इस खामोश सड़क ने
जग भर का कोलाहल
मोटरों की घरघराहट
और धना दम घोटू धुंआ
घटना-दुर्घटनाओं का भार
अपने पर क्यों ढो रखा है ?
विचारों का कम्पन
बहुत ऊपर
शून्य तक पहुंचता है.... ।
रोजाना सड़कों पर मरते लोग
ध्वस्त होते सपने
असमय ढेर हुई लाशें
विचार श्रृंखला को भर देती हैं
गंतव्य तक पहुंचने से पूर्व ही
चिन्तन मार्ग भटक जाता है
खो जाता है
क्षितिज के पार तक
बिखरे / भीगे / संस्पर्श युक्त
विचारों का रेला खो जाता है
मैं उन्हें पुन: मानस में
खोजने का उपक्रम करता हूं
तभी
व्यस्त सड़क से गुजरता
एक भारी भरकम ट्रक
अपने नुकीले / तीखे / धारदार
हॉर्न से विचार श्रृंखला की
कड़ियों को तोड़ते हुए
आंखों से ओझल हो जाता है।

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