रविवार, 24 फ़रवरी 2013

लो आ गया ...परीक्षा का भूत


डा कुंजन आचार्य

आपने भूतों के बारे में तो सुना ही होगा। भूतों के कई प्रकार होते है। हमारे देश में सभी वेराइटी के भूत बहुतायत से पाए जाते है। लोग खामखां भूतों से डरते है। भूत कभी किसी को डरा ही नहीं सकता क्‍योंकि वह खुद डरा हुआ होता है। यदि डरा हुआ नहीं होता तो क्‍या यूं छिप कर घूमता। हमारे यहां जो लोग दिन रात काम में लगे रहते है उन्‍हें काम का भूत कहते है। देखो यार फलाना चन्‍द तो अपने काम में भूत की तरह लगा रहता है। वहीं दूसरी ओर भूत भगाने वाले भी हमारे यहीं पाए जाते है। भोपे से लेकर ताबीज बनाने वाले तक लेकिन बहुत ही कम लोगों को पता हे कि मार के आगे सारे भूत भाग जाते है। अब देखों ना जैसे जैसे फरवरी खत्‍म होने को होती है एक नए प्रकार का भूत आकार लेना शुरु कर देता है। इस भूत का नाम है परीक्षा पिशाच। यह बहुत खतरनाक और सिट्टी पिट्टी घुम कर देने वाला भूत है। बहुधा छोटे बच्‍चों और किशोर वय पर इसका अधिक असर होता है लेकिन इस मौसम में तो कालेज में पढने वाले नौजवानों पर भी इसकी हवा का असर शुरु हो गया है। इस भूत के डर से अभिभावकों ने बच्‍चों को टीवी व खेलना बन्‍द करवा दिया है। जो समझदार बच्‍चे कालेज में पढते है उन्‍होंने भी घर से निकलना कम कर दिया है। सैर सपाटे, मौज मस्‍ती वाली जगहों पर इस भूत का प्रकोप बढ जाता है। इससे बचने के लिए नोट्स नाम के ताबीज बनवाए और लिए दिए जा रहे है। यह भूतों की एक अंशकालिक प्रजाति है। अप्रेल से मई के अन्‍त तक यह भूत भाग जाता है। परीक्षा होती ही विकट है भैये। हर कोई सामना नहीं कर सकता इसका। बचपन में जब हमारी परीक्षाएं आती थी तो खाना गले से उतरता ना था। सारी पिकनिक सैर सपाटा बन्‍द हो गए है। अब देखो ना गर्ल फ्रेंड- ब्‍वाय फ्रेंड के साथ चाय पकौडी के सारे कार्यक्रम भी स्‍थगित कर दिए गए है। मोबाइल का मैसेज पेक भी रिचार्ज नहीं हुआ है। साल भर पढाई नहीं की है इसलिए अब यह भूत तो सिर पर ही सवार है और पूछ रहा है बता क्‍या क्‍या लिख कर आएगा। वैसे भी परीक्षाएं हम हर रोज देते है। महंगाई से कैसे निपटेंगे और घर कैसे चलेगा, यह बडी परीक्षा हर आम आदमी के पास है। सिंलेंडरों की घटती बढती संख्‍या से चूल्‍हा कैसे जलेगा यह भी एक सवाल इसी परीक्षा का है। आतंकवादियों से निपटने के लिए सरकारें हर बार परीक्षा देती है। अब देखो ना कई सारे राज्‍यों में एक साथ नेताओं की परीक्षाएं आ रही है। अपने यहां भी आने वाली है। जो पास होगा वो विधानसभा पहुंचेगा। इसके बाद दिल्‍ली वाली परीक्षा भी है। गाहे बगाहे नोट्स जुगाडने और पढाई का सिलसिला नेताओं में भी शुरु हो गया है। अब वह दौर तो रहा नहीं कि पुस्‍तकालयों में जा कर हम बडी बडी किताबे लाकर पढे। अब तो पास बुक और वन वीक सीरिज का जमाना है। एक सप्‍ताह का तैयार हलवा खाओ और परीक्षा के भूत को भगाओ। स्‍कूल या कालेज के टाइम में यदि हमारे बस्‍तों में कोई पास बुक या कुंजी दिख जाती थी तो मास्‍टर की मार तय थी ऊपर से पूरी कक्षा के सामने तिरस्‍कार होता सो अलग। अब इन कुंजियों के प्रयोग से ना तो मार का डर है ना तिरस्‍कार का क्‍योंकि मास्‍टर जी तो खुद ही इसे लिख रहे है और कह भी रहे है जाओ भाई साल भर नहीं पढे तो कोई बात नहीं। जब जागो तभी सवेरा। कुंजियों को पढो ओर अपना भविष्‍य गढो।

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

धीरज धरें..... लेकिन कब तक ??


ब्‍लास्‍ट के बाद दिलसुख नगर का क्षतिग्रस्‍त बस स्‍टाप

-डा कुंजन आचार्य-

फिर धमाके। लाशें ही लाशें। सडकों पर खून। अस्‍पतालों में अफरा तफरी। जिनके परिजन घरों को नहीं लौटे ऐसे हैदराबादवासियों की बदहवासी। जिनके रिश्‍तेदार और परिजन वहां है उनकी चिन्‍ताएं। हर ओर शोक। मातम और मायूसी। हर बार देश के दुश्‍मन आते है, सारी व्‍यवस्‍थाओं को धता बताते है और हमरा चैन छीन ले जाते है। हम धीरज रखते है। रखते आए है। सवाल यही है कि आखिर कब तक। धैर्य की भी एक सीमा है। ब्‍लास्‍ट के बाद हर बार की तरह सरकारी अमला दौडता है। एनआईए, एसपीजी टीमें आती है। मन्‍त्री, सन्‍त्री पहुंचते है। दिलासा, जांच, मुआवजा और आंसू। हम हर बार की तरह लकीर पीटते है। कहते है धीरज धरो। मुश्किल घडी में धीरज जरुरी होता है लेकिन इन कनखजूरों का सफाया बेहद जरुरी है। इन जहरीले कीडों को मारना बेहद जरुरी है जो समाज और राष्‍ट्र को शान्ति से जीने नहीं देना चाहते। राष्‍ट्र की एकता और शान्ति के दुश्‍मनों को सबक सिखाना बहुत जरुरी है।

हमारे धैर्य को कहीं कायरता ना समझ लिया जाए। हम पर कहीं डरपोक होने का लेबल ना चस्‍पा हो जाए। पडौसी हमारे अमन से खौफ खाते है। वे इस अमन को हर कीमत पर ध्‍वस्‍त करना चाहते है। इसमे स्‍थानीय मिली भगत की भी कडाई से पडताल होनी चाहिए। कोई भी देश का दुश्‍मन स्‍थानीय मदद के बगैर हमारी नाक के नीचे ऐसा नहीं कर सकता। सरकार को सख्‍ती दिखानी होगी। हमे भी साहसी होना होगा। जागरुक होना होगा।

हैदराबाद एक नाम है। यह नाम किसी अन्‍य शहर का भी हो सकता है। आतंकी कहीं भी जा सकते है। बम प्‍लांट कर सकते है। हमे आस पास चौकस निगाह रखनी होगी। संदिग्‍धों की सूचनाएं प्रशासन तक पहुंचानी होगी। यह भी यदि हम कर लें तो पुलिस को भी आसानी होगी। बेचारी पुलिस और उसका सबसे नीचे का कांस्‍टेबल तो चोरियां, पाकेटमारी जैसी समस्‍याओं को रोकने में ही व्‍यस्‍त है। उसे अवकाश ही नहीं कि वह इस तरह की बडी नापाक हरकतों पर भी निगाह डाल सके। हमारे सुरक्षा तन्‍त्र को भी मुस्‍तैद बनाना होगा। सुरक्षाकर्मियों को भी चौकस और दुरस्‍त करना होगा। दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर हमे देश के लिए भी सोचना होगा। देश है तो हम है। मैंने हैदराबाद में छह साल टीवी पत्रकारिता की। दिलसुखनगर शहर का बाहरी हिस्‍सा है। उपनगर है। कल गुरुवार को जहां ब्‍लास्‍ट हुआ इस के ठीक पास वाली गली में मैं 2004 में करीब छह माह रहा। यह बाजार जो अति व्‍यस्‍त है इसमें मैंने घंटों गुजारे है। चित्र में जो बिखरा बस स्टाप दिख रहा है इसके नीचे खडे रह कर कई बार बस की प्रतीक्षा की है। इन सब के चित्र देख कर मैं बहुत विचलित और आहत महसूस कर रहा हूं। असहाय महसूस कर रहा हूं। हैदराबाद में अति व्‍यस्‍ततम कोठी इलाके में है गोकुल चाट भंडार। राजस्थानी संचालक है। लाजवाब चाट और बेहतरीन स्‍वाद। वहां रहते हुए हर रविार की शाम चाट खाने का नियम बन गया था। 2007 में एक रविवार को दोपहर बाद बहुत बरसात थी इसलिए चाट का कार्यक्रम निरस्‍त किया गया। कुछ देर बाद पता चला कि गोकुल चाट में बडा विस्‍फोट हुआ है। तब भी लाशें बिछ गई थी। गोकुल चाट की रक्‍तरंजित दिवारों को देख कर मैं दहल गया था। इसलिए नहीं कि यदि मैं वहां होता तो क्‍या होता बल्कि इसलिए कि हम कितने असहाय है। कोई भी कभी आता है और हमे सरेराह तमाचा मार कर चला जाता है। हम वाकई बहुत असहाय है। यहां एक घटना याद आ रही है। म्‍यूनिख ओलम्पिक में इजराइल के एक दर्जन खिलाडियों को आतंकियों ने मार डाला था। प्रतिक्रिया में इजराइल ने उन सभी आतंकियों को दुनिया के कोने कोने से चुन चुन कर मारा। अन्तिम आतंकी घटना के दस साल बाद उसी के देश में उसी के देश में इजराइली कमांडो द्वारा मारा गया। आतंकवाद के खिलाफ इजराइल का जज्‍बा लाजवाब है। हम किसी से तो कुछ सीखे। (फोटो सौजन्‍य- भास्‍कर डाट काम)

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

म्‍हारी भासा, म्‍हारो देस


-डा कुंजन आचार्य

आज विश्‍व मातृभाषा दिवस है। यानी जो भी लोग अपनी मातृभाषा से प्रेम करते है उनके लिए य‍ह दिन पवित्र है। सारे संसार में मातृभाषाओं को बहुत ही आदरणीय माना जाता है। भाषा को सम्‍मान और स्‍वाभिमान का प्रतीक समझा जाता है। भाषा ही वह माध्‍यम है जिसमें आपस में संवाद कायम करते है। एक दूसरे को जानते समझते है। अंग्रेजी अंतरराष्‍ट्रीय भाषा है जो सबको जोडती है लेकिन उसकी कहानी हमारे रगों में जब से गौरव बन कर बहने लगी तभी से हमने अपनी मायड भाषा को बिसरा दिया। मायड भाषा मतलब राजस्‍थानी। देश की हर भाषा के लोग अपनी भाषा को बेहद संजीदगी से लेते है। उसको सम्‍मान का दर्जा दिलाने के लिए पूरी ताकत लगा देते है लेकिन हम आज भी राजस्‍थानी को पूरे मनोयोग से सम्‍मान नहीं दे पाए है। इतने आन्‍दोलनों के बावजूद राजस्‍थानी को संवैधानिक मान्‍यता तक नहीं मिल पाई। तर्क कुतर्क इतने है कि सिर चकरा जाए। कोई कहता है राजस्‍थानी में इतनी बोलियां है कि उसको समग्र कैसे करेंगे। मारवाडी, वागडी, हाडौती, ढूंढाडी, मेवाती,शेखावाटी आदि से मिल कर बनती है राजस्‍थानी। इन सबको समझने और बोलने में मुझे तो कभी कोई दिक्‍कत नहीं हुई। किसी और को फिर कैसे दिक्‍कत हो सकती है। सबसे पहले तो मायड भाषा को सरकारी मान्‍यता मिले इस बात का सक्रिय और समन्वित प्रयास किया जाना चाहिए। इसका क्‍या रुप होगा यह तो सभी बैठ कर तय कर ही लेंगे।
मनोविज्ञान को पढते समय एक बात पर मैने गौर किया कि कितना भी पढा लिखा आदमी क्‍यों ना हो गुस्‍से की पराकाष्‍ठा और उत्‍तेजना में वह गाली अपनी मातृभाषा में ही देता है। मतलब सोचने की प्रक्रिया ओर चिन्‍तन का आरम्भिक बिन्‍दु मातृभाषा से ही शुरु होता है। आजादी के बाद भाषा के नाम पर खूब हिंसा तक हो गई। दक्षिण वाले अपनी भाषाओं को छोडना नहीं चाह रहे थे। वे आज भी डटे है। दक्षिण भारत में मैंने छह साल बिताए। प्रारम्भिक सालों में दुकानों के साइन बोर्ड पढने में बडा कष्‍ट होता था। सब के सब तेलगु, कन्‍नड और तमिल में होते थे। तब मैं सोचता था कि मेरे जैसे लोगों के लिए क्‍या ये साइन बोर्ड दो भाषाओं में नहीं हो सकते। दूसरी अंग्रेजी हो ताकि सब लोग समझ सके, लेकिन मातृभाषा से प्रेम दक्षिण भारत में सिर चढ कर बोलता है। गुजरात और महाराष्‍ट्र में भी यही हाल है। बस हम ही पीछे है। विदेशों में अंग्रेजी के बिना काम नहीं चलता लेकिन बहुत ही कम लोगों को पता है कि चीन, जापान और रुस में सरकारी और कामकाज की भाषा उनकी अपनी भाषाएं है। लोगों को अंग्रेजी ना तो बोलना आता है ना लिखना। इसके बावजूद जापान और चीन के उत्‍पाद पूरे विश्‍व में धडल्‍ले से चल रहे और बिक रहे है। चीन को अब जाकर कुछ इल्‍म हुआ तो अंग्रेजी सीखने सिखाने का दौर शुरु हुआ। इतना गर्व है इन लोगों को अपनी भाषा पर। हमारे बच्‍चे चाहे अंग्रेजी माध्‍यम में पढे लेकिन हम कोशिश करें कि बच्‍चें से घर में मेवाडी में बात करे ताकि उन्‍हें अपनी भाषा का ज्ञान रहे। अधिकांश घरों में नई पीढी के लोग हिन्‍दी बोलते है। कुछ दिखावे के लिए अंग्रेजी में गिटर पिटर करते है। जो मजा मेवाडी में बात करने का है वह और किसी भाषा में कहां। कमसे कम आज के दिन हम यह संकल्‍प करें कि राजस्‍थानी को मान्‍यता दिलाने के लिए संघर्ष में अपनी भी आहुति दे। भाषा को सम्‍मान दे और इस पर गर्व करें।

टेम्पो चलाने का सुख


-डा कुंजन आचार्य-

यदि आप कार चलाते है। जीप चलाते है। बस चलाते है या चाहे स्कूटर, बाइक या साइकिल चलाते है लेकिन जो सुख टेम्पो चलाने का है वो इन सब वाहनों को चलाने में नसीब नहीं है। यह वह सुख है जिसकी कीमत वही समझ सकता है जो इसे चलाता है। बडे टेम्पो जिन्हें हम आम वाहन चालक 12 सीटर कहते है एक अद्भुत किस्म का यात्रा वाहन है। इस वाहन को चलाते हुए वाहन चालक तमाम तरह के मोह माया और बन्धनों से ऊपर उठ जाता है। हो सकता है आप मेरी बात को मजाक समझ रहे हो लेकिन मैं जो बात कहने जा रहा हूं वह बात शायद प्राचीन ग्रन्थों में भी उपलब्ध ना हो क्योंकि टेम्पो चालक जैसी महान शख्सियत के बारे में कभी किसी ने कल्पंना भी नहीं की होगी। यदि मेरी बात पर यकीन ना हो तो स्वयं देखिए। हाथ कंगन को आरसी क्या। यहां आरसी से मतलब टेम्पो की आरसी से है। जब हाथ में टेम्पो चलाने का कंगन हो तो उसे किसी आरसी वारसी की जरुरत नही पडती। तब चालक उदयपुर की सडक पर ऐसे टेम्पो चलाता है जैसे अगस्ता लैंड हेलिकोप्टर। ना तो उन्हें कोई रोक सकता है ना कोई टोक (ठोक) सकता है। क्या दिल्ली गेट ओर क्या सूरजपोल। क्या ठोकर चौराहा और क्या उदियापोल हर ओर इन्हीं का साम्राज्य‍ है। पते की बात तो यह है कि पूरे शहर के ट्रेफिक को अस्त व्यस्त करने का इन्हें लाइसेन्स प्राप्त है। सवारी रुपी प्रभु के दर्शन होते ही टेम्पो चालक को फिर किसी की परवाह नहीं रहती, वह बीच सडक में टेम्पो रोक कर उस सवारी को राजकीय सम्मान से स्थान देता है। इस बीच सडक पर पीछे कोई आ रहा है या उससे ट्रेफिक रुक गया है इस तरह की तुच्छ बातों की परवाह टेम्पो चालक अपनी शान के खिलाफ समझता है। चौराहों पर एक के पीछे एक टेम्पो इस तरह कतारबद्ध होकर सवारी के लिए खडे हो जाते है जैसे टेम्पों चालकों की रैली हो रही हो। इस कतार के बीच से कुछ टेम्पो बीच सडक में खडे हो जाते है। बेचारे दूसरे वाहन चालक तो इन सबके सामने नतमस्तक हो कर बमुश्किल रास्ता बना कर निकल पाते है। इस पूरी (अ) व्यावस्था के दौरान आप यह ना समझे कि ट्रेफिक पुलिस रुपी तारनहार कुछ भी नहीं करते। उन्हें कृपया ना कोसें। वे तो बेचारे शकल देख कर इक्का दुक्का निरीह किस्म के बाइक सवारों को रोकते है और चालान बनाते रहते है। अव्व्ल तो उन्हें तो चालान बनाने से फुर्सत ही नहीं मिलती, और यदि फुर्सत मिल भी जाए तो उनकी इतनी हिम्मत नहीं कि टेम्पो चालक रुपी ताकतवर प्राणी को कुछ कह दे। एमबी कालेज के सामने कुम्हारो का भट्टा तिराहा, मुल्ला तलाई चौराहा, फतहपुरा चौराहा, सेवाश्रम तिराहा आदि ऐसे स्था‍न है जहां टेम्पो चालक अपनी स्वतन्त्रता से ट्रेफिक व्यवस्था को अंगूठा दिखते दिख जाएंगे। क्षमता से अधिक सवारियां भरना, काला काला धूंआ छोडते हुए शहर को हाई कार्बन सिटी बनाना, व्यवस्था तोडने पर कोई टोक दे तो लडने मारने पर उतारु हो जाना यह सब टेम्पो चालकों की अतिरिक्ति योग्यताएं है। यह सुख होंडा सिटी और मर्सडीज चलाने में नहीं है। उसको चलाते समय तो आप को थोडा डिसेन्ट बनना होता है। अब सिटी बसें तो बेचारी सवीना के एक मैदान में पडी धूल खा रही है, उन्हें चलाने की ना तो सरकारी इच्छा शक्ति है ना रुचि। शहर की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था इन्ही टेम्पो चालक देवदूतों के हाथ में है। इन्हें हम सब को मिल कर प्रणाम करना चाहिए।

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

भ्रष्‍टाचार का अर्थशास्‍त्र

-डा. कुंजन आचार्य-

अन्‍ना हजारे ने जब से भ्रष्‍टाचार के खिलाफ शंखनाद किया है पूरे देश में इस आन्‍दोलन को व्‍यापक समर्थन मिला है। अब बाबा रामदेव विदेशी बैंकों में जमा काले धन को देश में वापस लाने को लेकर एक बडी मुहिम छेड चुके है। दरअसल भ्रष्‍टाचार की झड़ें इतनी गहरी है कि उन्‍हें खत्‍म करना तो दूर आसानी से हिलाया तक नहीं जा सकता। दुनिया के भ्रष्‍ट देशों की सूची में हालांकि अभी हमारा देश पहले पायदान तक नहीं पहुंचा है लेकिन पिछले एक दो सालों में जितने घोटाले हुए है उसने देश की किरकिरी जरुर की है।

भारत में इस बात की सुविधा है कि आप सुविधा शुल्‍क चुका कर कोई भी काम करवा लें, चाहे वह काम एक रुपए का हो या एक करोड का। भ्रष्‍ट व्‍यवस्‍था का आलम यह है कि यदि कोई ईमानदार अफसर रिश्‍वत लेकर काम करने से ना नुकुर करता है या इनकार कर देता है तो भी रिश्‍वत देने वाले का काम तो होगा ही, क्‍योंकि वह उससे बडे अधिकारी को खरीद लेगा या मन्‍त्री से जुगाड भिडा कर ऐसे अधिकारी को ले आएगा जो उसका काम करने में सक्षम हो। कुल मिलाकर भ्रष्‍टाचार एक ऐसा रोग है जिसकी जितनी चिकित्‍सा करने की कोशिश की जाएगी वह उतना ही बढता जाएगा।

देश में हर जगह भ्रष्‍ट व्‍यवस्‍था है। उपर से नीचे तक हर जगह। पंचायत में दो हजार की सीमेन्‍ट लाने में पांच सात सौ की रिश्‍वत ली व दी जाती है। खुल कर खिलाया पिलाया जाता है। व्‍यवस्‍था के तहत एक काम करने का पैसा होता है। एक ना करने का। एक दशक पहले बीएसएनएल की मोबाइल सेवा की लांचिंग में क्‍यों अनावश्‍यक विलम्‍ब किया गया और इस विलम्‍ब से किस निजी कम्‍पनी को फायदा हुआ यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। एक दशक की बात छोडिए हम तो हाल की बात करते है जिसमें एक राजा सलाखों के पीछे चला गया। विश्‍व के अब तक के घोटालों में सबसे बडे घोटाले के तौर पर अपना नाम दर्ज करवा चुके 2 जी स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले ने विश्‍व पटल पर भारत की बडी नाक कटाई। इस स्‍पेक्‍ट्रम आवंटन में किस किस को लाभ पहुंचाया गया, बाजार राशि से कम दरों पर आवंटन करके किस को लाभ हुआ और क्‍यों हुआ यह सब सामने आ चुका है। इस पूरे घोटाले में कई बडी मछलियां पहली बार कांटे में फंसी और सलाखों के पीछे हुई। इस में कई बडी मीडिया हस्तियों की भूमिका भी संदिग्‍ध रही। नीरा राडिया जैसे हाई प्रोफाइल मध्‍यस्‍थों की कलई खुली तो करूणानिधि की पुत्री कनीमोझी और कलईनार टीवी के निदेशक शरत कुमार तक को सीबीआई ने दबोच लिया। यह सब सम्‍भव हुआ सर्वोच्‍च न्‍यायालय की फटकार के बाद।सीबीआई के पास तो यह सब कुछ पिछले दो साल से था लेकिन राजनीतिक गठबंधन की मजबूरियां और जांच की कछुआ चाल से मामला नौ दिन चले अढाई कोस वाला ही साबित हुआ।

राष्‍ट्रमंडल खेलों में हुई अनियमितताओं ने तो हद ही कर दी। समिति के अध्‍यक्ष, पूर्व मन्‍त्री ओर दिग्‍गज कांग्रेस नेता सुरेश कलमाडी करोडों डकार गए। शुरु से कहते रहे उन्‍होंने कुछ नहीं किया, सब कुछ पारदर्शी है लेकिन अब सब भ्रष्‍टाचार और अनियमितताएं सामने आ गई है और वे तिहाड जेल में है।

देखा जाए तो भ्रष्‍टाचार का अर्थशास्‍त्र बडा पेचिदा है। हमारा तन्‍त्र ऐसा है कि यह सब करना अपरिहार्य है। ना करो तो संकट ज्‍यादा है। करने पर तो संकट तब आएगा जब पकडे जाएंगे। हमारा देश घोटालों का देश रहा है। भ्रष्‍टाचार और अनियमितताएं गहरे तक जमी हुई है। खरीद फरोख्‍त का काम तो बहुत दबंगई से होता है। संसद में बहुमत साबित करने के लिए तत्‍कालीन प्रधानमन्‍त्री पीवी नरसिंह राव ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को एक एक करोड में खरीद लिया था। ऐसा तो देश की सर्वोच्‍च इकाई में हुआ, वैसे देखें तो छात्रसंघों के चुनाव, नगर पालिकाओं, परि‍षदों, पंचायतों यहां तक की कर्मचारी संघों के चुनाव में भी यही सब कुछ होता है। पूरे कुए में भाग घुली हुई है।

देश की जनता अब इस स्थिति से आजिज आ चुकी है। इसी कारण अन्‍ना हजारे के भ्रष्‍टाचार के खिलाफ शुरु किए गए आन्‍दोलन को पूरे देश में व्‍यापक जनसमर्थन मिला। लोकपाल मसोदे पर चर्चा जारी है और शायद अगले मानसून सत्र में इसे सदन के पटल पर रखा जाएगा। इस विधेयक के जरिए सभी सर्वोच्‍च लोकतान्त्रिक संस्‍थाओं को इसके जांच दायरे में लाया जाएगा। हालांकि कूटनीति में माहिर मन्‍त्री इस विधेयक के प्रस्‍ताव और मसौदे को लचीला बनाने में लगे है। देश का सर्वोच्‍च नेतृत्‍व स्‍वयं को सुरक्षित रखना चाहता है। यही हाल न्‍यायपालिका का भी है। नौकरशाह क्‍यों पीछे रहे, उनकी मंशा भी यही दिख रही है। कुल मिलाकर संसद तक पहुचते पहुंचते यह बिल कहीं अपना मूल स्‍वरुप खो कर अपनी दिशा ही ना भटक जाए। अन्‍ना ने जब भ्रष्‍टाचार के खि‍लाफ मुहिम शुरु की तो पहले से ही स्‍पष्‍ट था कि इसमें सभी सर्वोच्‍च संस्थाएं दायरे में लाई जाएगी। अब सरकार चाह रही है कि प्रधानमन्‍त्री, शिखर न्‍यायपालिका और नौकरशाही को इस दायरे में ना लाया जाए। तो सवाल उठता है कि फिर इतनी चर्चाएं और वार्ताएं क्‍यों की गई। मतलब स्‍पष्‍ट है। सरकार भ्रष्‍टाचार के सफाए के प्रति गम्‍भीर नहीं है। इतनी बैठकों का नतीजा भी यह सब देख कर तो सिफर ही लगता है। सरकारी पक्ष बार बार बयान बदल कर भ्रष्‍टाचार के खिलाफ खडे हुए आन्‍दोलन की खिल्‍ली उडा रहा है। यदि इस विधेयक को कमजोर किया जाता है तो जनता का शीर्ष लोकतान्त्रिक नेतृत्‍व से विश्‍वास ही उठ जाएगा। भ्रष्‍टाचारी ताकतें और मतबूती से खडी हो जाएगी।

बाबा रामदेव ने भी इसी मुहिम को आगे बढाने की कोशिश की है। काले धन की देश में वापसी के मुद्दे पर जन आन्‍दोलन शुरु करने वाले इस संन्‍यासी को अनशन करने से रोकने के लिए पहले तो चार चार मन्‍त्री एअर पोर्ट पहुंचे। बातें हुई। समझाईश का दौर भी चला लेकिन अन्‍ततोगत्‍वा अनशन स्‍थल पर रात के तीन बजे जो कुछ भी हुआ उसने ब्रिटिश शासन की याद दिला दी। आखिर क्‍या मजबूरी है कि संप्रग सरकार भ्रष्‍टाचार के खात्‍मे के लिए गम्‍भीर नही दिखती। इतने महाघोटाले होने अपने एक मन्त्री और एक वरिष्‍ठ नेता की जेल के बाद भी क्‍यों टालमटोल का रवैया है। इसका जवाब यदि आज नहीं दिया गया तो कल जनता स्‍वयं जवाब दे देगी।

देश का कानून भी इतना लचीला है कि भ्रष्‍टाचार का आरोपी आसानी से निकल छूटता है। भ्रष्‍टाचार निरोधक अधिनियम 1988 के अन्‍तर्गत अपराध करने वाला व्‍यक्ति दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अध्‍याय 21 ए में परिभाषित प्‍ली बारगेनिंग प्रक्रिया का लाभ प्राप्‍त कर सकता है। इसके तहत आरोपी यदि अपना अपराध स्‍वीकार कर ले तो उसे कम से कम सजा पर छुडाया जा सकता है। इस तरह के कानून आरोपियों को निकल छूटने में मदद करते है इस तरह के कानून को और सख्‍त बनाने की जरुरत है। बिहार के दूसरी बार चुने गए मुख्‍मन्‍त्री नितीश कुमार इस दिशा में कुछ करने में सफल रहे है। उन्‍होंने चुनाव से पूर्व बिहार की जनता से वादा किया था कि भ्रष्‍ट अफसरों की अचल सम्‍पत्ति जब्‍त कर वहां स्‍कूल और अस्‍पताल खोल दिए जाएंगे। नितीश ने ना सिर्फ वादा किया बल्कि उसे पूरा भी कर दिखाया। ऐसा साहस केन्‍द्र सरकार को भी दिखाना होगा। बाबा रामदेव देश के बाहर गए काले धन को वापस लाने की बात कर रहे लेकिन उससे भी बडा सवाल है कि देश में ही मौजूद काले धन की पडताल कौन करेगा। बहस बहुत बडी है और सिर्फ बहस मुबाहिसे से कोई हल नहीं निकलने वाला इसके लिए ठोस पहल और सख्‍ती की जरुरत है। बेहतर लोकतान्त्रिक व्‍यव्स्‍था के लिए भ्रष्‍टाचार को खत्‍म करना बहुत आवश्‍यक है। यह कैसे खत्‍म होगा यह आज का सबसे बडा यक्ष प्रश्‍न है।

बुधवार, 9 जून 2010

किताबें ही किताबें

हैदराबाद में हर रविवार जब बड़े बड़े मॉल और दुकाने बन्‍द होती है तब उनके बाहर लाखों किताबों का बाजार लगता है। कोटी से एबिड्स ओर कोटी से सुल्‍तान बाजार की ओर के रास्‍तों पर हर विषय और हर भाषा की पुस्‍तकें कोडि़यों के मोल बिकती है। इनमें अधिकतर वे पुस्‍तकें होती है जो किसी को किसी ने उपहार में दी होती है ओर वो उपहार पाने वाला उसे रद्दी में बेच देता है। 200 से 500 तक की किताब आपको 10 से 20 रुपए में मिल जाएगी। आश्‍चर्य तो यह कि इनको बेचने वालों में कई तो पढ़ना लिखना भी नहीं जानते। कभी हैदराबाद जाने का अवसर मिले तो रविवार को इस खुले पुस्‍तक मेले का नजारा जरुर कीजिए। हो सकता है कि आपको वह बहुमूल्‍य पुस्‍तक इसी बाजार में मिल जाए जिसे आप देश के बड़े बड़े पुस्‍तक मेलों में खोज आए हों।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

बेगानी शादी में...

टेनिस स्टार सानिया मिर्जा और पाकिस्तानी क्रिकेटर शोएब मलिक की हैदराबाद में हुई शादी में घराती और बाराती दोनों परिवारों से भी उत्साहित कोई था तो इलेक्ट्रोनिक मीडिया। टीवी चैनलों की हालत इस शादी में ऐसी थी जैसे बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना। शादी से ठीक पहले जब शोएब की पहली पत्नी आएशा का मामला गरमाया हुआ था तब सानिया के घर के बाहर का आलम यह था कि न्यूज चैनलों की 28 से भी ज्यादा ओबी वेन का मजमा लगा हुआ था। पूरे मौहल्ले में जहां तहां ओबी वेन, चैनलों के रिपोर्टर, कैमरा यूनिट इस तरह छितराए हुए थे कि मौहल्ले में बस वे लोग ही नजर आ रहे थे। जैसे ही सानिया के घर के अन्दर से बाहर की ओर किसी के आने की आहट होती वैसे ही चैनलनवीस बाइट के लिए झपट पड़ते। इससे बचने के लिए सानिया के परिजनो को शादी तक एक पीआरओ लगाना पड़ा। यह निश्चित तौर पर एक खबर है कि भारत की टेनिस स्टार की शादी है। निश्चित तौर पर यह एक सेलीब्रिटी शादी है इसलिए यह बड़ी खबर है लेकिन क्या इतनी बड़ी खबर है कि दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ जवानों पर नक्सली हमले की खबर इस खबर के सामने बौनी दिखाई पड़ी। शादी का समारोह जितने दिन भी चला उस दौरान देश में और भी कई घटनाएं घटी लेकिन इस शादी को जो कवरेज मिला उतना किसी और खबर को नहीं मिला। हम दर्शकों को खबर परोसते है। कई खबरें अंडर प्ले तो कई ओवर प्ले होती है यह सब स्वाभाविक भी है लेकिन टीआरपी की प्रतिस्पर्द्धा में यदि हम उन खबरों को भी अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से दिखा दें जिसके बारे में हमे खुद पूरी जानकारी नहीं है ओर ना ही हमें जिस के कवरेज के लिए प्रवेश की अनुमति है तो निश्चत तौर पर इस तरह की खबरों को लगातार देख कर दर्शक अपना सिर नोच लेगा।