बुधवार, 20 फ़रवरी 2013
म्हारी भासा, म्हारो देस
-डा कुंजन आचार्य
आज विश्व मातृभाषा दिवस है। यानी जो भी लोग अपनी मातृभाषा से प्रेम करते है उनके लिए यह दिन पवित्र है। सारे संसार में मातृभाषाओं को बहुत ही आदरणीय माना जाता है। भाषा को सम्मान और स्वाभिमान का प्रतीक समझा जाता है। भाषा ही वह माध्यम है जिसमें आपस में संवाद कायम करते है। एक दूसरे को जानते समझते है। अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा है जो सबको जोडती है लेकिन उसकी कहानी हमारे रगों में जब से गौरव बन कर बहने लगी तभी से हमने अपनी मायड भाषा को बिसरा दिया। मायड भाषा मतलब राजस्थानी। देश की हर भाषा के लोग अपनी भाषा को बेहद संजीदगी से लेते है। उसको सम्मान का दर्जा दिलाने के लिए पूरी ताकत लगा देते है लेकिन हम आज भी राजस्थानी को पूरे मनोयोग से सम्मान नहीं दे पाए है। इतने आन्दोलनों के बावजूद राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता तक नहीं मिल पाई। तर्क कुतर्क इतने है कि सिर चकरा जाए। कोई कहता है राजस्थानी में इतनी बोलियां है कि उसको समग्र कैसे करेंगे। मारवाडी, वागडी, हाडौती, ढूंढाडी, मेवाती,शेखावाटी आदि से मिल कर बनती है राजस्थानी। इन सबको समझने और बोलने में मुझे तो कभी कोई दिक्कत नहीं हुई। किसी और को फिर कैसे दिक्कत हो सकती है। सबसे पहले तो मायड भाषा को सरकारी मान्यता मिले इस बात का सक्रिय और समन्वित प्रयास किया जाना चाहिए। इसका क्या रुप होगा यह तो सभी बैठ कर तय कर ही लेंगे।
मनोविज्ञान को पढते समय एक बात पर मैने गौर किया कि कितना भी पढा लिखा आदमी क्यों ना हो गुस्से की पराकाष्ठा और उत्तेजना में वह गाली अपनी मातृभाषा में ही देता है। मतलब सोचने की प्रक्रिया ओर चिन्तन का आरम्भिक बिन्दु मातृभाषा से ही शुरु होता है। आजादी के बाद भाषा के नाम पर खूब हिंसा तक हो गई। दक्षिण वाले अपनी भाषाओं को छोडना नहीं चाह रहे थे। वे आज भी डटे है। दक्षिण भारत में मैंने छह साल बिताए। प्रारम्भिक सालों में दुकानों के साइन बोर्ड पढने में बडा कष्ट होता था। सब के सब तेलगु, कन्नड और तमिल में होते थे। तब मैं सोचता था कि मेरे जैसे लोगों के लिए क्या ये साइन बोर्ड दो भाषाओं में नहीं हो सकते। दूसरी अंग्रेजी हो ताकि सब लोग समझ सके, लेकिन मातृभाषा से प्रेम दक्षिण भारत में सिर चढ कर बोलता है। गुजरात और महाराष्ट्र में भी यही हाल है। बस हम ही पीछे है। विदेशों में अंग्रेजी के बिना काम नहीं चलता लेकिन बहुत ही कम लोगों को पता है कि चीन, जापान और रुस में सरकारी और कामकाज की भाषा उनकी अपनी भाषाएं है। लोगों को अंग्रेजी ना तो बोलना आता है ना लिखना। इसके बावजूद जापान और चीन के उत्पाद पूरे विश्व में धडल्ले से चल रहे और बिक रहे है। चीन को अब जाकर कुछ इल्म हुआ तो अंग्रेजी सीखने सिखाने का दौर शुरु हुआ। इतना गर्व है इन लोगों को अपनी भाषा पर। हमारे बच्चे चाहे अंग्रेजी माध्यम में पढे लेकिन हम कोशिश करें कि बच्चें से घर में मेवाडी में बात करे ताकि उन्हें अपनी भाषा का ज्ञान रहे। अधिकांश घरों में नई पीढी के लोग हिन्दी बोलते है। कुछ दिखावे के लिए अंग्रेजी में गिटर पिटर करते है। जो मजा मेवाडी में बात करने का है वह और किसी भाषा में कहां। कमसे कम आज के दिन हम यह संकल्प करें कि राजस्थानी को मान्यता दिलाने के लिए संघर्ष में अपनी भी आहुति दे। भाषा को सम्मान दे और इस पर गर्व करें।
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