गुरुवार, 14 मार्च 2013

उम्र घटाने बढाने का खेल


डा कुंजन आचार्य

चाय की थडी पर खडे दो दोस्त चाय की चुस्कियों के साथ गपिया रहे थे। एक कह रहा था गांव में स्कूल में मास्टर जी ने जब दाखिला किया तो उम्र एक साल कम दर्ज कर दी थी। अब रिटायर्डमेन्ट में एक साल पीछे रह गया। मेरे साथ पैदा हुए सभी लोग इस बार रिटायर्ड हो गए। पीडा जायज थी। यह उस समय की बात है जब जन्म और मृत्यु प्रमाण नहीं बना करते थे। मास्टरजी ने जो लिख दिया वही तिथि पत्थर की लकीर होती थी। इसी प्रकार आप देखिए कि अधिकांश सरकारी कर्मचारियों की जन्म तिथि एक जनवरी यानी नए साल के दिन आती है। यह नहीं होगी तो एक जुलाई होगी। ऐसा इसलिए कि एक जनवरी को याद रखने में पेशानी पर बल नहीं पडते दूसरे एक जुलाई मास्टरजी के लिए मुफीद तारीख है इसी दिन स्कूल खुलते है। स्कूल में दाखिल के समय मास्टरजी अधिसंख्य बच्चों को कागजी तौर पर नए साल के दिन जन्म दिन मनाने को मजबूर कर देते है। चाय की आखिरी घूंट हलक से उतारते हुए दूसरे दोस्त ने कहा यार मेरा तो दूसरा ही लफडा है मैं बचपन में मोटा तगडा दिखता था तो मास्टर जी ने मेरी आयु दो साल कम लिख दी। दोनों अपने बचपन के मास्टर को याद कर ही रहे थे कि पास में बैठे एक साहब का मोबाइल बजा। उन्होंने बात शुरु की और फोन करने वाले को धन्यवाद कहने लगे। कह रहे थे कि भाई शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद लेकिन ये मेरा वास्ताविक बर्थ डे नहीं है। यह तो सरकारी रिकार्ड का बर्थ डे है। फोन बन्द करते ही चाय वाले चम्पा लाल ने भी बधाई दी तो साहब ने कहा कि भई अपना तो साल में दो बार जन्म दिन आता है। एक तो सरकारी रिकार्ड वाला और दूसरा वास्तव में जब मैं पैदा हुआ वो वाला। वास्तविक वाला रिकार्ड वाले से छह महीने कम है। भई उम्र का मामला ही ऐसा है कोई कम करके बताता है तो कोई बढा कर। कहते है महिलाएं अपनी उम्र छिपाकर रखती है। बताना भी पडे तो कम करके बताती है। एक मनोविज्ञानी ने क्या खूब कहा कि महिलाओं की उम्र 25 पर आकर स्थिर हो जाती है। वह चाहे फिर साठ की ही क्यों ना हो जाए। हमारे उपभोक्तावादी दौर में भी उम्र को ही मात करने की बात दिखाई पडती है। एक विज्ञापन में सफेद होते बालों के कारण एक महिला बच्चे को कहती है आंटी मत कहो ना। वहीं दूसरी ओर एक साबुन बेचती अभिनेत्री टीवी पर विज्ञापन में कहती नजर आती है कि मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता ही नहीं चलता। साहित्य में उम्र के किस्से मशहूर है। शृंगार के कवि नायिका को सोलह साल से ऊपर बताना ही नहीं चाहते। रीतिकालीन कवि भी नायिका को षोडशी यानी सोलह साल की कह कर सम्बोधित करते है। कुल मिलाकर सोलह साल बडा खतरनाक साल है। एक हिन्दी फिल्म‍ की एक पंक्ति बताने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं। सुनिएगा- पंडित जी मेरा हाथ देख कर बात बता दो हाल की, साजन अब तक मिला नहीं मैं हुई हूं सोलह साल की। यानी की कुल मिलाकर हमारे लेखकों और कवियों ने सदियों से नायिका की उम्र सोलह तय कर रखी है। इसके लिए ना तो कोई कानून बना ना कोई अध्यादेश जारी हुआ। अब तक चुप चाय वाले चम्पालाल ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। बोला साहब उम्र को घटाने बढाने की बहस का क्या फायदा। संस्का‍र होगा तो वह साठ साल में भी दिखाई देगा और संस्कारहीन है तो वह पांच साल में भी छिपेगा नहीं। चाय पी रहे अन्य लोग चम्पा लाल की बात पर सहमति से मुंडी हिला रहे थे।

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