बुधवार, 9 जून 2010
किताबें ही किताबें
हैदराबाद में हर रविवार जब बड़े बड़े मॉल और दुकाने बन्द होती है तब उनके बाहर लाखों किताबों का बाजार लगता है। कोटी से एबिड्स ओर कोटी से सुल्तान बाजार की ओर के रास्तों पर हर विषय और हर भाषा की पुस्तकें कोडि़यों के मोल बिकती है। इनमें अधिकतर वे पुस्तकें होती है जो किसी को किसी ने उपहार में दी होती है ओर वो उपहार पाने वाला उसे रद्दी में बेच देता है। 200 से 500 तक की किताब आपको 10 से 20 रुपए में मिल जाएगी। आश्चर्य तो यह कि इनको बेचने वालों में कई तो पढ़ना लिखना भी नहीं जानते। कभी हैदराबाद जाने का अवसर मिले तो रविवार को इस खुले पुस्तक मेले का नजारा जरुर कीजिए। हो सकता है कि आपको वह बहुमूल्य पुस्तक इसी बाजार में मिल जाए जिसे आप देश के बड़े बड़े पुस्तक मेलों में खोज आए हों।
गुरुवार, 15 अप्रैल 2010
बेगानी शादी में...
टेनिस स्टार सानिया मिर्जा और पाकिस्तानी क्रिकेटर शोएब मलिक की हैदराबाद में हुई शादी में घराती और बाराती दोनों परिवारों से भी उत्साहित कोई था तो इलेक्ट्रोनिक मीडिया। टीवी चैनलों की हालत इस शादी में ऐसी थी जैसे बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना। शादी से ठीक पहले जब शोएब की पहली पत्नी आएशा का मामला गरमाया हुआ था तब सानिया के घर के बाहर का आलम यह था कि न्यूज चैनलों की 28 से भी ज्यादा ओबी वेन का मजमा लगा हुआ था। पूरे मौहल्ले में जहां तहां ओबी वेन, चैनलों के रिपोर्टर, कैमरा यूनिट इस तरह छितराए हुए थे कि मौहल्ले में बस वे लोग ही नजर आ रहे थे। जैसे ही सानिया के घर के अन्दर से बाहर की ओर किसी के आने की आहट होती वैसे ही चैनलनवीस बाइट के लिए झपट पड़ते। इससे बचने के लिए सानिया के परिजनो को शादी तक एक पीआरओ लगाना पड़ा। यह निश्चित तौर पर एक खबर है कि भारत की टेनिस स्टार की शादी है। निश्चित तौर पर यह एक सेलीब्रिटी शादी है इसलिए यह बड़ी खबर है लेकिन क्या इतनी बड़ी खबर है कि दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ जवानों पर नक्सली हमले की खबर इस खबर के सामने बौनी दिखाई पड़ी। शादी का समारोह जितने दिन भी चला उस दौरान देश में और भी कई घटनाएं घटी लेकिन इस शादी को जो कवरेज मिला उतना किसी और खबर को नहीं मिला। हम दर्शकों को खबर परोसते है। कई खबरें अंडर प्ले तो कई ओवर प्ले होती है यह सब स्वाभाविक भी है लेकिन टीआरपी की प्रतिस्पर्द्धा में यदि हम उन खबरों को भी अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से दिखा दें जिसके बारे में हमे खुद पूरी जानकारी नहीं है ओर ना ही हमें जिस के कवरेज के लिए प्रवेश की अनुमति है तो निश्चत तौर पर इस तरह की खबरों को लगातार देख कर दर्शक अपना सिर नोच लेगा।
बुधवार, 31 मार्च 2010
घुड़सवार
****************************
चौराहे-दर-चौराहे
गुजरते गुजरते
महसूस होता है कभी
कि अब उग आई है समझ
कि कब कहा और कैसे
मील के पत्थरों से रूबरू होना है?
सोचने और करने तक के
फासले की दूरी
बहुत सोच के बाद भी नहीं मिट पाई
समझ कभी हैरान
कभी परेशान
और कभी खुद पर खीझती
कोसती है सोच को।
सोचती है
सूचियो में बंधे लक्ष्यों को
जरूरत है
तीक्ष्ण ऊर्जा
एवं पैने प्रयासों की
परतु हर भोर के साथ
उत्साह की बिखरती रश्मियां
वह समेट ही नहीं पाता।
बस चलता है
और चलता रहता है।
इस विश्वास के साथ
कि कुछ रश्मियां
करती रहेंगी प्रकाशवान
उसके मार्ग को
कभी बेपरवाह
हर क्षण, हर वजूद से
तो कभी
ढेरों चिंताओं का
और डर के दुष्चक्र में पिसता
कच्ची उम्र का वह घुड़सवार
खुद का बहुत अच्छा
विश्लेषक होने के बावजूद
खुद को कभी नहीं समझ पाया।
लगाम को पकड़ना
और अश्व से खेलने का शौक
कब षड़यंत्रों का हिस्सा बन जाएगा
इन सब से अनभिज्ञ
बिल्कुल बेखबर था वह।
हर तरफ से लापरवाह
घुड़सवार दौड़े जा रहा है
चौराहा-दर-चौराहा।
कहीं गरम, झुलसाती हवाएं
कहीं शीतल बयार
कहीं धुंआ
तो कहीं ठिठुरन ।
सूरज ने भी असहमति जता दी
कि उसके नाम की कोई लकीर
उसके हाथ में बने।
शनि की वक्रदृष्टि
कभी उसके सपनों को
झुलसा देती है
चौराहों पर हजारों चेहरों से
मिलते बिछुड़ते
घुड़सवार कहीं खो जाता है।
वह भूल जाता है
कि उसे कहां जाना है ?
अपरिपक्वता उसकी सच्चाई है
परन्तु औपचारिक गम्भीरता
और उससे जुड़े दायित्वों को ढोता
घुड़सवार कभी महसूस करता है
खुद को हताश
निराश और टूटा हुआ।
वेदना के क्षण
उसके अन्तस को कचोट जाते हैं
पीड़ा की अनुभूति
शौक का व्यवसाय बनना देखती है
और देखती है
कि विकल्पों के लिए छोड़े गये
रिक्त स्थानों में
जम रही है महीन मिट्टी की परतें।
घुड़सवार ठड़ लगाता है
तेज, बहुत तेज
कभी बदहवास सा
कहीं गिर पड़ता है
फिर लड़खड़ा कर
एकदम उठता है
और चलता है।
गुजरता जाता है
चौराहा-दर-चौराहा
पर उसे नहीं पता
कि किधर है उसका गंतव्य ?
कौन सी है मंज़िल?
और उसे कहां जाना है.. ?
**********************
चौराहे-दर-चौराहे
गुजरते गुजरते
महसूस होता है कभी
कि अब उग आई है समझ
कि कब कहा और कैसे
मील के पत्थरों से रूबरू होना है?
सोचने और करने तक के
फासले की दूरी
बहुत सोच के बाद भी नहीं मिट पाई
समझ कभी हैरान
कभी परेशान
और कभी खुद पर खीझती
कोसती है सोच को।
सोचती है
सूचियो में बंधे लक्ष्यों को
जरूरत है
तीक्ष्ण ऊर्जा
एवं पैने प्रयासों की
परतु हर भोर के साथ
उत्साह की बिखरती रश्मियां
वह समेट ही नहीं पाता।
बस चलता है
और चलता रहता है।
इस विश्वास के साथ
कि कुछ रश्मियां
करती रहेंगी प्रकाशवान
उसके मार्ग को
कभी बेपरवाह
हर क्षण, हर वजूद से
तो कभी
ढेरों चिंताओं का
और डर के दुष्चक्र में पिसता
कच्ची उम्र का वह घुड़सवार
खुद का बहुत अच्छा
विश्लेषक होने के बावजूद
खुद को कभी नहीं समझ पाया।
लगाम को पकड़ना
और अश्व से खेलने का शौक
कब षड़यंत्रों का हिस्सा बन जाएगा
इन सब से अनभिज्ञ
बिल्कुल बेखबर था वह।
हर तरफ से लापरवाह
घुड़सवार दौड़े जा रहा है
चौराहा-दर-चौराहा।
कहीं गरम, झुलसाती हवाएं
कहीं शीतल बयार
कहीं धुंआ
तो कहीं ठिठुरन ।
सूरज ने भी असहमति जता दी
कि उसके नाम की कोई लकीर
उसके हाथ में बने।
शनि की वक्रदृष्टि
कभी उसके सपनों को
झुलसा देती है
चौराहों पर हजारों चेहरों से
मिलते बिछुड़ते
घुड़सवार कहीं खो जाता है।
वह भूल जाता है
कि उसे कहां जाना है ?
अपरिपक्वता उसकी सच्चाई है
परन्तु औपचारिक गम्भीरता
और उससे जुड़े दायित्वों को ढोता
घुड़सवार कभी महसूस करता है
खुद को हताश
निराश और टूटा हुआ।
वेदना के क्षण
उसके अन्तस को कचोट जाते हैं
पीड़ा की अनुभूति
शौक का व्यवसाय बनना देखती है
और देखती है
कि विकल्पों के लिए छोड़े गये
रिक्त स्थानों में
जम रही है महीन मिट्टी की परतें।
घुड़सवार ठड़ लगाता है
तेज, बहुत तेज
कभी बदहवास सा
कहीं गिर पड़ता है
फिर लड़खड़ा कर
एकदम उठता है
और चलता है।
गुजरता जाता है
चौराहा-दर-चौराहा
पर उसे नहीं पता
कि किधर है उसका गंतव्य ?
कौन सी है मंज़िल?
और उसे कहां जाना है.. ?
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मौन
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हर अवसर पर
बस यही सोच कर चुप रह लेता हूं
कि मेरे शब्द
शायद नहीं हो पाएंगे मुखर।
मैं भी देखता हूं एक स्वप्न
धवल चांदनी
और उसके चपल संवेगों में लिपटी
मदहोश कर देने वाली महक का
परंतु महक और उसका अंतरंग शिल्प
मेरी शाब्दिक अभिव्यक्ति की सीमा में
कभी नहीं बंध पाया।
मैने चाहा
बहुत चाहा
रूबरू हुआ उन सजीले शब्दों से
घंटों अकेले में
पर नियति ने
उन शब्दों को बांध दिया है
मेरे उस अहम के साथ
जो किसी कोने में दबा, छिपा है।
माहौल की गरमी पाते ही
उठ खडा होता है वह
अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ
उसकी विशाल संरचना
जबरन ढंक लेती है
मेरी कल्पना के सतरंग
संवेदनाओं की खुशबू
और मेरी आत्मीय अभिरूचि की जिजीविषा।
मेरे मन के भीतर छिपे
सैंकड़ों मन
अनिच्छा के बावजूद
दब जाते हैं उसके भार तले।
माहौल में ठण्डक पसरने के साथ ही
अहम का वजूद भी
अचानक घट जाता है
वह निढाल हो जाता है
गिर पड़ता है मन के बिल्कुल समीप।
मन कोमलांगी वजूद
कोसता है उसे
करता है मिन्नतें
और मागता है
कुछ स्नेहमयी सौगातें।
चंचल मन में बसी गम्भीर समझ
मेरे एकांत की हैरानी है
चटख चांदनी जब कभी छिटक पड़ती है
मेरे आंगन में
मैं उसे आश्चर्य का स्पर्श दे
निहारता हूं
और बस निहारता हूं।
मेरा स्निग्ध मौन
चांदनी के हर प्रतिरूप को खला है।
हमेशा ही
निढाल अहम के कुछ स्वेदकण
छू जाते हैं मानस को
और यही सोच कर चुप रह लेता हूं
कि नहीं दे पाऊंगा भावनाओं को
शब्दों की औपचारिक मुखरता
बस यही कारण रहा
कि चांद को प्रायः मेरे व
चांदनी के बीच
पसरा हुआ दिखा
एक निष्ठुर मौन...।
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हर अवसर पर
बस यही सोच कर चुप रह लेता हूं
कि मेरे शब्द
शायद नहीं हो पाएंगे मुखर।
मैं भी देखता हूं एक स्वप्न
धवल चांदनी
और उसके चपल संवेगों में लिपटी
मदहोश कर देने वाली महक का
परंतु महक और उसका अंतरंग शिल्प
मेरी शाब्दिक अभिव्यक्ति की सीमा में
कभी नहीं बंध पाया।
मैने चाहा
बहुत चाहा
रूबरू हुआ उन सजीले शब्दों से
घंटों अकेले में
पर नियति ने
उन शब्दों को बांध दिया है
मेरे उस अहम के साथ
जो किसी कोने में दबा, छिपा है।
माहौल की गरमी पाते ही
उठ खडा होता है वह
अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ
उसकी विशाल संरचना
जबरन ढंक लेती है
मेरी कल्पना के सतरंग
संवेदनाओं की खुशबू
और मेरी आत्मीय अभिरूचि की जिजीविषा।
मेरे मन के भीतर छिपे
सैंकड़ों मन
अनिच्छा के बावजूद
दब जाते हैं उसके भार तले।
माहौल में ठण्डक पसरने के साथ ही
अहम का वजूद भी
अचानक घट जाता है
वह निढाल हो जाता है
गिर पड़ता है मन के बिल्कुल समीप।
मन कोमलांगी वजूद
कोसता है उसे
करता है मिन्नतें
और मागता है
कुछ स्नेहमयी सौगातें।
चंचल मन में बसी गम्भीर समझ
मेरे एकांत की हैरानी है
चटख चांदनी जब कभी छिटक पड़ती है
मेरे आंगन में
मैं उसे आश्चर्य का स्पर्श दे
निहारता हूं
और बस निहारता हूं।
मेरा स्निग्ध मौन
चांदनी के हर प्रतिरूप को खला है।
हमेशा ही
निढाल अहम के कुछ स्वेदकण
छू जाते हैं मानस को
और यही सोच कर चुप रह लेता हूं
कि नहीं दे पाऊंगा भावनाओं को
शब्दों की औपचारिक मुखरता
बस यही कारण रहा
कि चांद को प्रायः मेरे व
चांदनी के बीच
पसरा हुआ दिखा
एक निष्ठुर मौन...।
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मन के भीतर का मन
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हवा का एक झोंका
मुझे छू कर
हौले से यूं गुनगुना देगा
मुझे पता भी न था।
स्वच्छ नीले और विशाल गगन के
विस्तृत पटल पर
वैसे तो हवाओं को
लहराते, इठलाते और मुस्कुराते हुए
कई-कई बार देखा है।
नदी की प्रवाहमान जलराशि को
छेड़कर दरख्तों से लिपट जाना
फूलों को गुदगुदा कर
अस्ताचल पर क्षितिज में विलीन हो जाना
कभी चंदा के साथ
घंटों खिलखिलाना
और अचानक स्मृति में तब्दील हो
क्षण-क्षण का अवसाद छोड़ जाना
हवाओं की फितरत रही है।
कई मन भावन रंगों से सजी
और भांति-भांति की खुशबूओं में लिपटी
हवाओं की कई प्रतिकृतियों को
फूलों के साथ
घंटों बतियाते देखा है मैंने।
जीवन के हर पहलू से जुड़ी
हवाओं के इन करतबों का
दर्शक भर मैं
इक झौंके के मृदु स्पर्श से
जाने कब गुनगुना दिया
खुद मुझे भी पता न चला
हवा ने रची शब्दों की सृष्टि
शब्द और शब्दों में बंधे प्रतीक
और प्रतीकों में लिपटी कविताएं।
मैं समझ भी नहीं पाया था
कि बादल, सागर व लहर के संवादों का साक्षी
हवा का वह झोंका
जाने कब
मुझसे लिखवा गया एक कविता।
हालांकि बिल्कुल मेरी ही तरह
मेरी कविता भी कुछ नहीं कह पाती
लेकिन फिर भी मैं यह देख अवाक हूं
कि हवा के स्नेहमयी स्पर्श ने
कविता से बंधे शब्दों के
अविच्छिन्न मौन के भीतर
संचरित कर दिया है
एक स्पन्दन।
कविताओं से जुड़ा मन का कोई कोना
हथेलियों से आंखों को बन्द कर
चाहता है हवा की गोद में
सिर छुपाना।
मन के भीतर का कोई एक मन
हवा के भीतर छुपे झोंके को
जी लेना चाहता है।
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हवा का एक झोंका
मुझे छू कर
हौले से यूं गुनगुना देगा
मुझे पता भी न था।
स्वच्छ नीले और विशाल गगन के
विस्तृत पटल पर
वैसे तो हवाओं को
लहराते, इठलाते और मुस्कुराते हुए
कई-कई बार देखा है।
नदी की प्रवाहमान जलराशि को
छेड़कर दरख्तों से लिपट जाना
फूलों को गुदगुदा कर
अस्ताचल पर क्षितिज में विलीन हो जाना
कभी चंदा के साथ
घंटों खिलखिलाना
और अचानक स्मृति में तब्दील हो
क्षण-क्षण का अवसाद छोड़ जाना
हवाओं की फितरत रही है।
कई मन भावन रंगों से सजी
और भांति-भांति की खुशबूओं में लिपटी
हवाओं की कई प्रतिकृतियों को
फूलों के साथ
घंटों बतियाते देखा है मैंने।
जीवन के हर पहलू से जुड़ी
हवाओं के इन करतबों का
दर्शक भर मैं
इक झौंके के मृदु स्पर्श से
जाने कब गुनगुना दिया
खुद मुझे भी पता न चला
हवा ने रची शब्दों की सृष्टि
शब्द और शब्दों में बंधे प्रतीक
और प्रतीकों में लिपटी कविताएं।
मैं समझ भी नहीं पाया था
कि बादल, सागर व लहर के संवादों का साक्षी
हवा का वह झोंका
जाने कब
मुझसे लिखवा गया एक कविता।
हालांकि बिल्कुल मेरी ही तरह
मेरी कविता भी कुछ नहीं कह पाती
लेकिन फिर भी मैं यह देख अवाक हूं
कि हवा के स्नेहमयी स्पर्श ने
कविता से बंधे शब्दों के
अविच्छिन्न मौन के भीतर
संचरित कर दिया है
एक स्पन्दन।
कविताओं से जुड़ा मन का कोई कोना
हथेलियों से आंखों को बन्द कर
चाहता है हवा की गोद में
सिर छुपाना।
मन के भीतर का कोई एक मन
हवा के भीतर छुपे झोंके को
जी लेना चाहता है।
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सम्बन्ध
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सूने और निस्तेज मन में
एक खूबसूरत आत्मिक सम्बन्ध ने
प्रवाहित की उत्साह की ऊर्जा।
ऊर्जा खुशबू बनी
और छा गयी
अन्तःकरण के समूचे परिवेश पर
ऊर्जा का संचार पा कर
मन ठिठका, रुका
झुक कर खुद को देखा
आंखों को गोलाई में घुमाते
माहौल को टटोला
कंधों को उचकाया
दोनों हाथ जेब में डाले
और फिर चल पड़ा।
ऊर्जा संगीत बनी
और सूने मन में गुंजायित हो उठी
सौम्य संगीत की सहस्त्रों आवृत्तियां।
संगीत ने दिया मानस को मृदु स्पर्श
और हवा में फैल गये
गुनगुनाहट के स्वर।
मन के कानों में भी हुई गुनगुनाहट की छुअन
एक बारगी मन चौंका
फिर मुस्कुरा दिया।
मन ने उड़ान भरी
और चाहा सम्बन्ध का नामकरण करना।
नाम देने से बदल जाएगा नज़रिया
और सोचने का ढंग
यही सोचा और थम गया मन ।
कुछ नहीं बोला / कुछ नहीं कहा
मन के मौन को देख
सम्बन्ध भी रहा चुप / निस्तब्ध।
हालांकि सम्बन्ध
कभी कुछ नहीं कहते
वे सिर्फ मन का कहा सुनते हैं
सैंकड़ों सम्बन्ध बनते हैं प्रतिदिन
और सुनते हैं मन का कहा
तब कथनों के साथ ही
नामकरण भी संस्कारित हो उठता है।
सम्बन्ध ने ताका मन की ओर
खेद मिश्रित मुस्कान बिखेरी
मन की ढीठता के नाम
सम्बन्ध और मन जानते हैं बखूबी
सम्बन्धों के निहितार्थ
और उससे जुड़ी महक को
दोनों के बीच पसरे मौन ने
कर दिया अब बयां
जो बरसों से कहा
और सुना जाता रहा है
मन व सम्बन्ध ने फिर एक दूजे को देखा
और हवा में तैर गयी
दो मृदु मुस्कानें
तब्दील हो गयी
एक नई ऊर्जा में
समा गयी आशा बन कर
रगों में, धमनियों में
शिराओं में,
मन अब
एक बार फिर चल पड़ा है।
****************************
सूने और निस्तेज मन में
एक खूबसूरत आत्मिक सम्बन्ध ने
प्रवाहित की उत्साह की ऊर्जा।
ऊर्जा खुशबू बनी
और छा गयी
अन्तःकरण के समूचे परिवेश पर
ऊर्जा का संचार पा कर
मन ठिठका, रुका
झुक कर खुद को देखा
आंखों को गोलाई में घुमाते
माहौल को टटोला
कंधों को उचकाया
दोनों हाथ जेब में डाले
और फिर चल पड़ा।
ऊर्जा संगीत बनी
और सूने मन में गुंजायित हो उठी
सौम्य संगीत की सहस्त्रों आवृत्तियां।
संगीत ने दिया मानस को मृदु स्पर्श
और हवा में फैल गये
गुनगुनाहट के स्वर।
मन के कानों में भी हुई गुनगुनाहट की छुअन
एक बारगी मन चौंका
फिर मुस्कुरा दिया।
मन ने उड़ान भरी
और चाहा सम्बन्ध का नामकरण करना।
नाम देने से बदल जाएगा नज़रिया
और सोचने का ढंग
यही सोचा और थम गया मन ।
कुछ नहीं बोला / कुछ नहीं कहा
मन के मौन को देख
सम्बन्ध भी रहा चुप / निस्तब्ध।
हालांकि सम्बन्ध
कभी कुछ नहीं कहते
वे सिर्फ मन का कहा सुनते हैं
सैंकड़ों सम्बन्ध बनते हैं प्रतिदिन
और सुनते हैं मन का कहा
तब कथनों के साथ ही
नामकरण भी संस्कारित हो उठता है।
सम्बन्ध ने ताका मन की ओर
खेद मिश्रित मुस्कान बिखेरी
मन की ढीठता के नाम
सम्बन्ध और मन जानते हैं बखूबी
सम्बन्धों के निहितार्थ
और उससे जुड़ी महक को
दोनों के बीच पसरे मौन ने
कर दिया अब बयां
जो बरसों से कहा
और सुना जाता रहा है
मन व सम्बन्ध ने फिर एक दूजे को देखा
और हवा में तैर गयी
दो मृदु मुस्कानें
तब्दील हो गयी
एक नई ऊर्जा में
समा गयी आशा बन कर
रगों में, धमनियों में
शिराओं में,
मन अब
एक बार फिर चल पड़ा है।
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प्रेम कविता
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शब्द उभरा
वाक्य बना
और यूं बन गयी कविता
कविता शब्दों के साथ बोली
हंसी
मुस्कुराई
और गुनगुनाई
शब्द बार-बार उभरे
होते रहे स्फुरित
और लिखी गयी कविताएं
जो हर बार छूट जाता है
रह जाता है कहीं
अनकहा / मूक
वह सब कुछ
प्रायः समाता रहा कविता में।
कविता की शाश्वतता
चमकती है
बिल्ली की बिल्लौरी आंखों की तरह
कविता की आत्मीयता
शब्द के प्रति झलकती रही।
इस आत्मीयता के साथ
जुड़ी थी शिकायतें और झगड़े।
कविता सदैव कहती रही
अभिव्यक्त करती रही स्वयं को
पर शब्द रहा
बिल्कुल चुप
शब्द प्रतीक गढ़ता
और उन प्रतीकों को चुरा लेती कविता
शब्द नितान्त अकेला है
उसके अकेलेपन की व्यथा
रह-रह कर फूट पड़ती है बाहर
कविता उसके एकान्त को
भरने का उपक्रम करती है ।
शब्द अभिभूत है
इस स्नेहिल उपक्रम से
कविता जानते हुए भी अनजान है
और शब्द चुप रहकर भी कह देता है
कि वह उससे प्रेम करता है।
परम्पराओं से बंधा शब्द नहीं जानता प्रेम की परिभाषा
पर फिर भी
वह गढ़ता है स्वयं के नित ने रूप
आत्मीय रूप
स्नेहिल रूप
और ढल जाता है एक नई कविता में
प्रेम कविता में।
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शब्द उभरा
वाक्य बना
और यूं बन गयी कविता
कविता शब्दों के साथ बोली
हंसी
मुस्कुराई
और गुनगुनाई
शब्द बार-बार उभरे
होते रहे स्फुरित
और लिखी गयी कविताएं
जो हर बार छूट जाता है
रह जाता है कहीं
अनकहा / मूक
वह सब कुछ
प्रायः समाता रहा कविता में।
कविता की शाश्वतता
चमकती है
बिल्ली की बिल्लौरी आंखों की तरह
कविता की आत्मीयता
शब्द के प्रति झलकती रही।
इस आत्मीयता के साथ
जुड़ी थी शिकायतें और झगड़े।
कविता सदैव कहती रही
अभिव्यक्त करती रही स्वयं को
पर शब्द रहा
बिल्कुल चुप
शब्द प्रतीक गढ़ता
और उन प्रतीकों को चुरा लेती कविता
शब्द नितान्त अकेला है
उसके अकेलेपन की व्यथा
रह-रह कर फूट पड़ती है बाहर
कविता उसके एकान्त को
भरने का उपक्रम करती है ।
शब्द अभिभूत है
इस स्नेहिल उपक्रम से
कविता जानते हुए भी अनजान है
और शब्द चुप रहकर भी कह देता है
कि वह उससे प्रेम करता है।
परम्पराओं से बंधा शब्द नहीं जानता प्रेम की परिभाषा
पर फिर भी
वह गढ़ता है स्वयं के नित ने रूप
आत्मीय रूप
स्नेहिल रूप
और ढल जाता है एक नई कविता में
प्रेम कविता में।
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